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® मिथ्यात्व ®
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काम किया जा रहा है, उसे किया हुआ ही कहा जाता है। तब जमालि ज्वर की तेजी में बोले–महावीर स्वामी का यह कथन मिथ्या है। काम पूरा होने पर ही उसे हुआ कहना चाहिए । इस प्रकार अपेक्षावाद को भुलाकर, एकान्तवाद का आश्रय लेकर भगवान् को झूठा कहने से उन्होंने मिथ्यात्व उपार्जन कर लिया। इस प्रकार जमालि पहले निह्नव हुए।
(२) तिष्यगुप्त-श्रीवसु प्राचार्य के शिष्य तिष्यगुप्त एक दिन आत्मप्रवाद पूर्व का स्वाध्याय कर रहे थे। उस में ऐसा प्रकरण आया कि-भगवन् ! आत्मा के एक प्रदेश को जीव कहना चाहिए । भगवान् ने कहानहीं । इसी प्रकार दो, तीन, यावत् संख्यात प्रदेशों तक प्रश्न किया, तब भी भगवान् ने कहा-नहीं। अन्त में प्रश्न किया गया-भगवन् ! असंख्यात प्रदेशों में एक प्रदेश कम हो तो उन्हें जीव कहना चाहिए ? भगवान् ने कहा-नहीं । आत्मा में जितने प्रदेश हैं उन सभी को जीव कहना चाहिए । इन प्रश्नोत्तरों से तिष्यगुप्त ने यह निष्कर्ष निकाला कि आत्मा का अन्तिम प्रदेश ही जीव है। इस प्रकार वे आत्मा को एक प्रदेशी मानने और कहने लगे। गुरुजी ने बहुत समझाया, पर वे नहीं समझे। अन्त में गुरुजी ने उन्हें गच्छ से बाहर निकाल दिया।
___ एक बार तिष्यगुप्त अमलकंपा नगरी में सुमित्र श्रावक के घर भिक्षा के लिए मये । श्रावक बड़ा विवेकवान्, बुद्धिमान् और जिनधर्म का ज्ञाता था । उसने एक दाना दाल का और एक दाना चावल का बहराया-भिक्षा में दिया । तब तिष्यगुप्त बोला क्या भाई हँसी करते हो ?
श्रावक ने कहा-नहीं महाराज ! मैं आपकी श्रद्धा के अनुसार ही आपको भिक्षा दे रहा हूँ।
तिष्यगुप्त—सो कैसे ?
श्रावक-एक आत्मप्रदेश की अवगाहना तो अंगुल के असंख्यातवें भाग की होती है और दाल तथा चावल के एक दाने की अवगाहना अंगुल के संख्यातवें भाग की है। इतना आहार तो आपकी आत्मा से असंख्यात गुण अधिक है।