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* मिथ्यात्व *
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करते हुए शास्त्र पढ़ना । (२८) सुट्टु दिएणं अर्थात् विनयवान्, भक्तिवान्, बुद्धिमान्, तथा धर्मप्रभावना के सामर्थ्य वाले सुयोग्य जिज्ञासु को ज्ञान न देना (२६) दुट्टुपडिच्छि अर्थात् अविनीत भाव से ज्ञान ग्रहण करना या अभि मानी, धर्मलोपक, आज्ञा भंग करने वाले अयोग्य पुरुष को ज्ञान देना ।* (३०) अकाले को सन्झाओ अर्थात् कालिक, उत्कालिक सूत्र की समझ बिना बेवक्त शास्त्र पढ़ना-पढ़ाना । (३१) काले न को सज्झाओ अर्थात् प्रमाद आदि के वश होकर स्वाध्याय के समय में स्वाध्याय न करना + (३२)
सम्झाए सज्झायं अर्थात् श्रस्वाध्याय के योग में शास्त्र का स्वाध्याय करना और (३३) सम्झाए न सज्झायं अर्थात् प्रमाद के वशीभूत होकर चौतीस साय के कारण न होने पर भी स्वाध्याय न करना IX इस प्रकार तेतीस शातनाएँ कही हैं। उन्हें जान बूझकर करे और करके भी बुरा न समझे, बल्कि अच्छा समझे तो मिथ्यास्त्र लगता है । ÷
* जैसे साँप को पिलाया दूध विष के रूप में परिणत होता है उसी प्रकार प्रयोग्य पुरुष को दिया हुआ ज्ञान मिथ्यात्व की वृद्धि करने वाला होता है। जो होनहार है उसे तो तीर्थकर भी नहीं टाल सकते, किन्तु अपनी समझ के अनुसार योग्य-अयोग्य का खयाल तो अवश्य रखना चाहिए और योग्य को ही ज्ञान देना चाहिए ।
+ शास्त्र में हड्डी का तथा रक्त का भी असझाय कहा है, किन्तु श्राजकल कितनेक हाथीदाँत की कीमियाँ रखते । इसी प्रकार हाथीदाँत के चूड़े का प्रसज्झाय टालना बड़ा मुश्किल हो गया है। रजस्वला स्त्री का भी उपयोग रखना चाहिए। असज्झाय में शास्त्रपठन कदापि नहीं करना चाहिए।
* शास्त्रों का स्वाध्याय समस्त दुःखों को नाश करने वाला है; ऐसा शास्त्रों का कथन है। अतः सूत्र-ज्ञान को धारण करने के लिए यथाशक्ति शास्त्र का स्वाध्याय अवश्य करना चाहिए ।
+ निव दो प्रकार के होते हैं - (१) प्रवचननिह्नव और (२) निन्दकनिह्नष । इनमें से प्रवचननिव तो नवमैवेयक तक चला जाता है किन्तु निन्दकनिह्नव किल्विषी देव होता है। श्री भगवतीसूत्र में जमालि को निर्मल चारित्र पालने वाला कहा है, तथापि वह किल्विष देव योनि में उत्पन्न हुए। इसका कारण यही है । अतः प्रवचननिह्नष की अपेक्षा निन्दकवि को अधिक खराब कहा है। कहा भी है:
sert अधिको कह्यो, निन्दक निह्नव जान | पंचम ने भासियो, हे पहिले गुणअप |