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जन-सत्व प्रकाश
आवश्यक क्रिया का आचरण न करना सो काल की आशातना * (१७) खन की आशातना अर्थात् शास्त्र के वचनों का उत्थापन करना अथवा उन्हें अन्यथा परिणमाना । (१८) जिनसे शास्त्र का ज्ञान प्राप्त किया उन श्रुतदेव की आशातना । (१६) जिनके पास से शास्त्र का अर्थ धारण किया हो उन वाचनाचार्य की आशातना । (इन १६ के गुणों का आच्छादन करे (के), अवर्णवाद बोले या अपमान करे तो आशातना होती है) । (२०) जं वाइद्धं अर्थात् शास्त्र के पहले के पदों को पीछे और पीछे के पदों को पहले उच्चारण करे तो पाशातना (२१) बच्चामेलियं अर्थात् बीच-बीच में सूत्रपाठ आदि छोड़ कर पढ़े,उपयोग शून्य होकर पढ़े तो आशातना (२२) हीणक्खर अर्थात् सूत्रपाठ के स्वरों या व्यंजनों का पूरा उच्चारण न करना, अधूरा बोलना (२३) अच्चक्खरं अर्थात् अधिक स्वर आदि बोलना । (२४) पयहीण-पद का पूरी तरह उच्चारण न करना या पद का अपभ्रंश करना (२५) विनयहोणं अर्थात् विनय-भक्ति रहित होकर पढ़ना, अहंकार में छक कर पढ़ना (२६) जोगहीणं अर्थात् स्वाध्याय करते समय मन, वचन, काय के योगों को चपल करना (२७) घोसहीणं-हस्व-दीर्घ का भान न रख कर शुद्ध शब्दोच्चारण न
* जैन ज्योतिषविद्या के प्रचार के प्रभाव से इस समय यथोचित काल के जानने में कठिनाई पैदा हो गई है, जिससे पाक्षिक, चातुर्मासिक और सांवत्सरिक आवश्यक के आराधन का काल भी विवादग्रस्त हो गया है। तथापि * नियम बहुत विद्वानों की सम्मति से बनाया जाय, उसके अनुसार पर्वसम्बन्धी क्रिया का प्राकरण करने से, व्यवहारसूत्र में कहे हुए पाँच व्यवहारों के अनुसार हो सकता है।
+समझ-बूभाकर एक अक्षर भी न्यूनाधिक करे तो मिथ्यावी हो जाता है। किन्त ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम के अनुसार जिसको जितना ज्ञान प्राप्त हुआ है, उसके अनुसार पठन-पाठन करने वाला पाराधक ही गिना जाता है। क्योंकि तीर्थङ्कर भगवान् ने जितना फरमाया है उतना गणघर महाराज भी नहीं कह सके हैं, क्योंकि उनमें वाणी के वह अतिशथा, जो तीर्थकर भगवान् में होते हैं, नहीं पाये जाने । और जितना गणधरों ने कहा, उतना अवार्य नहीं कह सके, क्योकि कामों में चिपदी सन्धि का अभाव है। फिर साधारण जनों का तो कहना ही क्या है ? अतः कोई सत्र प्रादि पढ़ने की मनाई करे तो भ्रम में न पड़ते हुए अपने क्षयोपशम के अनुसार पठन-पाठन करते रहना चाहिए। जान-बूझकर अशुद्ध नहीं बोलना और अनजान में अशुद्ध' उशाराहावे तो उसके लिए जं वाइद'