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* मिथ्यात्व *
पर सूर्य की तेज किरणों के कारण उष्णता का अनुभव हुआ । तब उन्होंने एक समय में दो क्रियाएँ वेदन करने की स्थापना की। उन्होंने समय की सूक्ष्मता का विचार नहीं किया। भगवान् ने फरमाया है-'जुगवं दो णत्थि उवोगा।' अर्थात् एक साथ दो उपयोग नहीं होते हैं । भगवान् के इस वचन का उत्थापन करने के कारण यह पाँचवें निह्नव हुए ।
(६) गोष्ठामाहिल-श्रीभगवान् ने जीव और कर्म का संबंध दूध में घी, तिल में तेल, पुष्प में सुगंध के समान कहा है, जब कि इन साधु ने सांप के चुली के समान संबंध की स्थापना की और भगवान् के वचनों की उत्थापना की। यह छठे निह्नव हुए।
(७) अश्वमित्र-इन साधु ने नरक आदि गतियों के जीवों की विपर्याय क्षण-क्षण में परावृत्त होती है, ऐसी स्थापना की। इनकी श्रद्धा बौद्धों के क्षणिकवाद जैसी होने से यह सातवें निव हुए।
इन सात के सिवाय कोई-कोई पाठ और कोई नौ निह्नव कहते हैं । इस प्रकार भूतकाल में हुए निह्नवों का वर्णन पढ़ कर, उस पर विचार करने से विदित होगा कि, जो महात्मा नौवें अवेयक तक पहुँच सकने योग्य जबर्दस्त क्रिया करने में समर्थ थे, वे श्रीप्रभु के केवल एक वचन का अन्यथा प्ररूपण करने मात्र से निह्नव कहलाए। तो आजकल के तुच्छ क्रिया करने वाले और दोंग करने वाले जो साधु शास्त्रों के पाठ को उत्थाप देते हैं
और शास्त्रों का उलटा अर्थ करके उपदेश देते हैं, जो उत्तम शास्त्र को शस्त्र रूप बना देते हैं, अनन्त भवों से उद्धार करने वाले परम पवित्र वचनों का ऐसा प्ररूपण करते हैं कि जिससे अनन्त भवभ्रमण बढ़ जाय, और जो किसी शास्त्रज्ञ तथा श्रद्धाशील के द्वारा वास्तविक अर्थ समझाने पर उसका तिरस्कार करने पर उतारू हो जाते हैं, ऐसे लोगों की क्या गति होगी ? अतएव इस कथन पर विचार करके, आत्मा के हितेच्छु बन कर मुमुक्षुओं को सन्मार्ग की आराधना करना चाहेए। __इस पंचम काल में परम पवित्र स्याद्वादमय जैनधर्म में मतमतान्तरों की मिन्नता के कारण जो विपरीत प्ररूपणा हो रही है, उसे देखकर अत्यन्त