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® जैन-तत्त्व प्रकाश 8
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खेद और आश्चर्य होता है ! (१) एक 'चेइय' या 'चैत्य' शब्द को ही ले लीजिए । इस शब्द ने जैनसंघ में कितना झगड़ा फैला रक्खा है ? कोई कहते हैं कि चैत्य शब्द का अर्थ ज्ञान है और कोई कहते हैं कि इसका अर्थ प्रतिमा है। ठाणांगसूत्र में कहा है कि-'एएसि णं चउवीसाए तित्थयराणं चउवीसं चेइयरुक्खा पएणचा। अर्थात् तीर्थङ्करों के ज्ञान उत्पन्न होने के चौबीस वृक्ष कहे हैं । इस सूत्रपाठ से स्पष्ट है कि यहाँ पर 'चेइय' शब्द का अर्थ ज्ञान ही हो सकता है। किन्तु जो लोग 'चेइय' शब्द का अर्थ ज्ञान ही करते हैं वे 'गुणसीले नाम चेइए' का क्या गुणशील ज्ञान अर्थ करेंगे? यह तो वगीचे का नाम है, यहाँ पर ज्ञान अर्थ घट नहीं सकता। इत्यादि विचार करके, निरपेक्ष भाव से, जहाँ जो अर्थ उपयुक्त हो वहाँ वही अर्थ करना चाहिए।
(२) कोई कहते हैं कि दया में धर्म है तो कितनेक कहते हैं कि आज्ञा में धर्म है । अब विचार करना चाहिए कि क्या भगवान् की आज्ञा में और दया में अन्तर है ? क्या भगवान् कभी हिंसा करने की आज्ञा देते हैं ? क्या भगवान् ने जीवरक्षा में कहीं अधर्म कहा है ? भगवान् ने तो स्वयं मरते गोशालक को बचाया था तो वे मरते प्राणी को बचाने में अधर्म कैसे कहते ? इस प्रकार विचार कर निरर्थक पक्षपात में पड़ कर झगड़ा क्यों करना चाहिए?
__(३) कितनेक लोग ऋषभदेव भगवान् के समय में बनी हुई वस्तु को महावीर स्वामी के समय तक रही बतलाते हैं और भगवतीस्त्र के आठवें शतक के नौवें उद्देशक में कृत्रिम वस्तु की स्थिति संख्यातकाल की ही कही है । श्रीऋषभदेव को हुए तो कुछ कम एक कोडाकोड़ी सागर काल हो चुका है। तो इतने समय तक कृत्रिम बस्तु कैसे रह सकती है ?*
(४) भगवतीसूत्र के छठे शतक के सातवें उद्देशक में वैताब्य पर्वत, गंगानदी, सिन्धु नदी, ऋषभकूट और समुद्र की खाड़ी, भरतक्षेत्र में इन पाँच
* कृत्रिम वस्तु का असंख्यात काल तक रहना सिद्ध करने के लिए कोई यह उदाहरण देते हैं कि-ऋषभकूट पर भूतकाल में हुए चक्रवर्ती का नाम मिटा कर वर्तमान काल के चक्रवर्ती अपना नाम लिखते हैं। किन्तु जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति शास्त्र में नाम मिटाने का उल्लेख ही नही है।