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* जैन-तत्त्व प्रकाश ®
फिर भी केवलज्ञानी को कवलाहार का निषेध करते हैं । अष्टपाद सूत्र के बोधपाहुड़ की ७वीं गाथा में सिद्ध समीचीन मुनि को सिद्धायतन कहा है।
आठवीं गाथा में शुद्ध ज्ञान के थारक मुनि को चैत्य (मंदिर) कहा। त्रिरत के धारक मुनि को प्रतिमा कहा है। १३वीं गाथा में जंगम प्रतिमा पनि की तथा स्थावर प्रतिमा सिद्ध की कही है। १६वीं गाया में भाचार्य को जिनबिम्ब कहा है और २८वीं गाथा से ४०वीं गाथा तक पार निषेष तीर्थकर का स्वरूप कहा है। इसके मानने वाले ही इसके विपरीत प्राधि करते हैं। भगवती आराधना शास्त्र की ७६वीं गाथा में, अपवाद मार्ग से १६ हाथ वस्त्र मुनि को धारण करना कहा है । ११०वें पृष्ठ में तिल का, चांवर का धोवन पानी मुनि को ग्रहण करना कहा है, किन्तु यही वस्त्रधारी तथा पोवन-पानी लेने वाले साधु की निन्दा करते हैं।
ऐसे ही साधुमार्गी जैनियों में भी कितनेक स्थानक में रहने वाले साा को पासत्थे बतलाते हैं तो कितनेक गृहस्थ के रहने के मकान में रहने वाले को जिनाज्ञा के विरुद्ध प्रवृत्ति करने वाले बतलाते हैं। किन्तु स्थानक नाम मकान का है। स्थानक के नाम में ही दोष भाकर नहीं घुस गया है। किसी अगह का नाम चाहे स्थानक हो या और कुछ हो, साधु को तो शास्त्रोक्त निर्दोष मकान में रहना उचित है । इसी प्रकार कितने लोग अपने सम्प्रदाय के, पंच के, साधु को छोड़कर अन्य को माहार मादि देने में वन्दना नमस्कार करने में एकान्त पाप बतलाते हैं, मरते जीव को बचाने में एकान्त पाप बतलाते हैं ! जिनके नाम से पूज्य बने हैं, उन्हीं भगवान् महावीर स्वामी को चूक गये बतलाते हैं। दया-दान धर्म की बड़ है, इसे साफ काट डालते हैं ! तो औरों की तो बात ही क्या है?
इस प्रकार की विपरीत प्ररूपता के कारण स्याद्वादशेली वाले इस जैनधर्म में भी, चलनी में छिद्रों के समान, अनेक मत-मतान्तर हो गये हैं। इन विभिन्न मतों के कारण लोगों को धर्म के संबंध में भ्रम होने लगता है। मत-पक्षी अपने-अपने गच्छ-सम्प्रदाय-पंथ की श्रद्धा को ही तीर्थकर की श्रद्धा मानते हैं । हठाग्रही हो कर सत्यासत्य के निर्वय की परवाह न करते हुए, अपने-अपने मत की सचाई और अन्य मत की उत्थापना करने में ही सा