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वस्तुओं को नित्य (शाश्वती) कहा है, किन्तु कितनेक शत्रुञ्जय पर्वत को भी शाम कहते हैं, और फिर कहते हैं कि ऋषभदेवजी के समय में यह पर्वत बहुत बड़ा था । क्रमशः घटते घटते छठे आरे में बहुत छोटा रह जायगा । तो क्या शाश्वती वस्तु भी बढ़ती घटती है ?+
* मिभ्यारण *
+ श्री जैन श्रात्मानन्दसभा, भावनगर से प्रकाशित होने वाले 'आत्मानन्दप्रकाश मासिक के पुस्तक १५, अङ्क १० में लिखा है- "धर्मघोष सूरिए पोताना 'प्राकृतकल्प' माँ सम्प्रति, विक्रम भने शालिवाहन राजाने भा (शत्रुञ्जय ) गिरिवरना उद्धारक बताव्या छे, पण तेनी बधारे सत्यता माटे हजी सुधी कोई विश्वसनीय प्रमाण मली शक्युं नथी । 'वाहड़ मन्त्रीनो उद्धार' वर्त्तमानमा जे मुख्य मन्दिर छे ते विश्वस्त प्रमाणथी जणाय छे के गुर्जर महामात्य बाइड (वाग्भट्ट) मंत्री द्वारा उद्धृत थयेल छे । विक्रमनी तेरमी सदीना प्रारंभमा वे चखते महाराजा कुमारपाल राज्य करता हता, ते वखते तेना उक्त प्रधाने पोताना पिता उदयन मन्त्रीनी इच्छानुसार ते मन्दिर बनाव्युं छे । प्रबन्धचिन्तामणिना कर्त्ता मेरुतुङ्गसूरि मा उद्धारना सम्बन्धमा जगावे छे के काठियावाड़ना कोई सुवर नामना मांडलिक शत्रु जीतवा माटे महाराज कुमारपाले पोताना मन्त्री उदयनने मोटी सेना आपीने मोकल्यो, बढवाण शहेरनी पासे मन्त्री पहोच्यो ते वखते शत्रुञ्जय नजीक रह्यो जाणी सैन्य ने आगल काठियावाडमा रवाना कर, पोते गिरिराजनी यात्रा करवा माटे शत्रुञ्जय तरफ रवाना थयो । जलदी यी शत्रुञ्जय पर पहोंची त्यां भगवत्प्रतिमानां दर्शन, वन्दन ने पूजन कर्य । ते बखते ते मन्दिर पत्थरनुं नहि परन्तु, लाकडानु हतु, मन्दिरनी स्थिति बहु जीर्ण हती अने अनेक ठेकाणे फाटफूट पडी गई हती। मन्त्री पूजन करी प्रभुप्रार्थना करवा माटे रंगमंडपमा ने एकामता तथा स्तवन करवा लाग्या, ते वखते मन्दिरनी कोई फाटमाथी एक उंदर मिकल्यो, ते एक दीवानी बत्ती मोंमा लईने पाछो क्याक वाल्यो गयो। श्रा प्रसंग देखीने मंत्रte दिलith साथे विचार कर्यो के मंदिर काष्ठमय अने जीर्ण होवाथी भावी राते बत्तीथी कोई वखते अग्नि लागी जाय तो तीर्थनी घोर आशातना थवानो भय छे । मारी आटली सम्पति तथा प्रभुता सुं कामनी छे ? आम दिलगीर थईमे ते मंत्रीए प्रतिज्ञा करी के आ युद्ध पूर्ण था बाद मंदिरनो जीर्णोद्धार करीश । काष्ठने स्थाने पत्थरना मजबूत मंदिर बंधावीश विगेरे । तदनन्तर ए मंत्री तो संग्राममा काम भाषी गया पण पितानी आज्ञानुसार वाहड अने we नामना एमना बग्ने पुत्रोए सं० १२९१ मा एक क्रोड साठ लाख रुपीचा खर्च करी अनेक मंदिरो बनायt ।
इस कथन से पाठक खबाल कर लें कि शत्रुंजय पर्वत पर मंदिर कब बने हैं। शत्रुञ्जय के उद्घारकों के जो नाम बतलाये गये हैं, उनका भी प्रमाणभूत वृत्तान्त उन्हें नहीं मिल सका है। तो फिर दूसरे वृत्तान्तों की सत्यता कैसे स्वीकार की जाय ? शत्रुंजय के छोटे-बड़े होने में गंगा-सिन्धु नदियों का दृष्टान्त दिया जाता है, वह वास्तविक नहीं। क्योंकि नदियों विस्तार कम-ज्यादा होता नहीं, सिर्फ पानी कम होता है ।