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* नजै-तत्त्व प्रकाश *
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[२] विपुलमति । इन दोनों भेदों का अन्तर समझने के लिए एक उदाहरण लीजिए:--किसी मनुष्य ने अपने मन में घट का विचार किया तो ऋजुमति ज्ञानी सिर्फ सामान्य घड़ा ही जानेगा, किन्तु विपुलमतिज्ञानी यह भी जानेगा कि सोचा हुआ घड़ा द्रव्य से मिट्टी का, काष्ठ का या धातु का है । क्षेत्र से पाटलीपुत्र में बना हुआ है। काल से शीतकाल या उष्णकाल में बना है और भाव से वी-दूध आदि भरने का है। इस प्रकार जुमति सामान्य रूप से पदार्थ को जानता है, जब कि विपुलमति व्यौरे के साथ पदार्थ को जानता है। दोनों में यह भी अन्तर है कि ऋजुमति प्रतिपाती होता है किन्तु विपुलमति अप्रतिपाती होता है । वह केवलज्ञान होने से पहले निवृत्त नहीं होता।
मनःपर्ययज्ञानी (१) द्रव्य से रूपी द्रव्यों को जानता है (२) क्षेत्र से १००० योजन ऊँची दिशा में, ६०० योजन नीची दिशा में और अढ़ाई द्वीप प्रमाण तिछी दिशा में देखता है। (इसमें ऋजुमतिज्ञान २॥ अंगुल कम देखता है) (३) काल से पल्योपन का असंख्यातवाँ भाग भूतकाल की
और पल्य के असंख्यातवें भाग भविष्यकाल की बात जानता है (४) भाव से सब संज्ञी जीवों के मन के भावों को जानता है।
मनापर्यवज्ञान मनुष्य, संज्ञी, कर्मभूमिज, संख्यात वर्ष की आयु वाले पर्याप्त, सम्यग्दृष्टि, संयत, अप्रमादी और लब्धिधारी मुनि को ही उत्पन्न होता है।
अवधिज्ञान से मनःपर्यवज्ञान की विशेषता-अवधिज्ञान की अपेक्षा मनापर्यवज्ञान का क्षेत्र थोड़ा है, किन्तु विशुद्धता अधिक है। अवधिज्ञान चारों गतियों के जीवों को हो सकता है, मनःपर्यायज्ञान मनुष्यगति में साधु को ही होता है। अवधिज्ञान से कोई जघन्य अंगुल का असंख्यातवाँ भाग जितना क्षेत्र जानता है तथा अधिक भी जान सकता है, किन्तु मनःपर्यव ज्ञान से अढाई द्वीप परिमित क्षेत्र ही जाना जाता है। अवधिज्ञान जिन सूक्ष्म रूपी पदार्थों को नहीं जान सकता, उनको भी मनपर्यवज्ञानी जान सकता है।