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जैन-तत्व प्रकाश,
अर्थात-अहिंसा ही परम धर्म है । सत्य आदि व्रतों का विस्तार तो अहिंसावत की भलीभाँति रक्षा करने के लिए ही है, उसी प्रकार जैसे वृक्ष की रक्षा के लिए बाड़ होती है।
ऐसा दयामय धर्म ही सच्चा धर्म है और उसी को ग्रहण करना श्रेयस्कर है।
प्रश्न-इस प्रकार की सम्पूर्ण दया को इस संसार में कौन पाल सकता है ? हमें तो ऐसी सूक्ष्मतर दया पालने वाला कोई नजर नहीं आता ?
उत्तर---.यह समझना ठीक नहीं है कि संसार में ऐसी दया पालने वाला कोई नहीं है । 'बहुरत्ना वसुन्धरा' अर्थात् इस पृथ्वी पर अनेक रत्न हैं। बड़े-बड़े मुनि महाराज, पंच महाव्रतधारी महात्मा, स्वदया और परदया का पालन करने में समर्थ पुरुष अाज भी विद्यमान हैं। वे ऐसी ही दया पालते हैं।
प्रश्न-पंच महाव्रतधारी साधु आहार-विहार वगैरह अनेक कार्य करते हैं । उन कार्यों में क्या हिंसा नहीं है ?
उत्तर-आहार-विहार आदि करते हैं, अनजान में किंचित द्रव्यहिंसा होती है, वह हिंसा नहीं है । जिनेश्वरदेव ने फरमाया है:
जयं चरे जयं चिट्टे, जयमासे जयं सये ।
जयं भुंजतो भासंतो, पावकम्मं न बंधई ॥ अर्थात्-यतना से-ईर्या समिति से चलते हुए, यतना से खड़े रहते हुए, यतना से बैठते हुए, यतना से सोते हुए, यतनापूर्वक भोजन व भाषण करते हुए पाप-कर्म का बंध नहीं होता।
भगवान के इस आदेश के अनुसार पंच महाव्रतधारी मुनि सब काम यतनापूर्वक करते हैं। इस कारण उन्हें हिंसा नहीं लगती। छयस्थ होने के कारण योग से चूक जाने पर कदाचित् हिंसा हो जाती है तो पश्चात्ताप के साथ प्रायश्चित्त (दंड) लेकर शुद्धि कर लेते हैं। इस कारण मुनि महाराज सर्वथा अहिंसाव्रतधारी हैं।