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* मिथ्यात्व *
भैंसे जैसे मूक प्राणियों को मारते हैं और उनका मांस खा जाते हैं और इस में धर्म मानते हैं ! इस प्रकार ये लोग इन पशुओं की निर्दय हत्या का पाप अपने सिर पर न रख कर देवता के माथे थोप देते हैं ! यहाँ तो स्वार्थ की हद ही हो गई !* अरे भोले भाइयो ! देव दयालु होता है या हत्यारा होता है ? तुम स्वयं जीम के लोलप हो, हत्यारे हो, इस कारण देव को भी हत्यारा बनाते हो ? भक्तों की करामात से देव के भी भाग्य फूटे ! मगर ऐसे लोगों को यह समझ नहीं है कि सती के माथे व्यभिचार का कंलक चढ़ाने से जितना पाप होता है, उतना पाप दयालु देवों को हिंसक बताने या बनाने से होता है । विष्णुपुराण में कहा है:
जले विष्णुः स्थले विष्णुर्विष्णुः पर्वतमस्तके ।
ज्वालमालाकुले विष्णुः, सर्व विष्णुमयं जगत् । अर्थात्-विष्णु स्वयं कहते हैं-मैं जल में हूँ, मैं स्थल में हूँ, मैं पर्वत के मस्तक पर हूँ, मैं आग की ज्वाला में हूँ मैं सर्वत्र हूँ। यह सारा संसार विष्णुमय है।
मान लीजिए, किसी राजा के छह पुत्र हैं । कोई मनुष्य उनमें एक पुत्र को मार कर राजा से पूछता है-राजन् ! आप सन्तुष्ट हुए ? तो राजा क्या सन्तुष्ट होगा ? इसी प्रकार छह काय के जीवों की हिंसा करके प्रभु को प्रसन्न करने की इच्छा रखने वालों पर प्रभु कभी प्रसन्न नहीं होता, बल्कि अप्रसन्न ही होता है। स्वयं श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा:
पृथिव्यामप्यहं पार्थ, वायावग्नौ जलेऽप्यहम् । वनस्पतिगतश्वाहं, सर्वभूतगतोऽप्यहम् ॥
देव के आगे बेटा माँगे, तब तो नारियल फटे । गोटा सो तो श्राप ही खावे, उनको चढावे नरोटे । जग चले उफराटे, झूठे को साहब कैसे भेटे ।।
-कबीर।