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* जैन-तत्त्व प्रकाश *
डालते हैं, वे उन्हें कितनी हानि पहुँचाते हैं ? थोड़ी-सी हानि पहुँचाने के कारण अगर वे कंटक रूप हो गये तो उन्हें जान से मारने वालों को क्या नाम दिया जाय ? वे महाकंटक कहलाएंगे या नहीं ? जब कंटक रूप जीवों को तुम नहीं छोड़ते तो तुम महाकंटकों का छुटकारा किस प्रकार होगा ?
भाइयो ! तुम ईश्वर को सृष्टि का कर्त्ता मानते हो तो यह भी मानना चाहिए कि जिस प्रकार ईश्वर ने तुम्हें उत्पन्न किया है, उसी प्रकार उन जीवों को भी उत्पन्न किया है । ईश्वर को आप सर्वज्ञ मानते हैं तो आपको यह भी समझना चाहिए कि उसने समझ-बूझकर किसी प्रयोजन से ही उन जीवों को बनाया होगा । तो फिर ऐसी महान् ईश्वरीय सत्ता के अधिकार की वस्तुओं को अनुपकारी समझ कर, उनका बध करके आप अपराधी बनते हैं। कुंभार के द्वारा बनाये हुए घड़े को भी अगर कोई फोड़ देता है तो कुंभार उसे दंड दिये बिना नहीं रहता, तो सर्वशक्तिमान् ईश्वर के द्वारा बनाये हुए प्राणियों का विनाश करने पर ईश्वर आपको कैसे छोड़ देगा ? क्या ईश्वर आपका मित्र ओर उनका शत्रु है ? ईश्वर का आदेश तो यह है
मृगोष्ट्रखरमर्कटाखु-सरीसपमक्षिकाः।
आत्मनः पुत्रवत् पश्येत्, तेषां मध्ये किमन्तरम् ? अर्थात्-मृग, ऊँट, गधा, बन्दर, चूहा, सर्प, मक्खी, आदि प्राणियों को अपने पुत्र के समान प्रिय समझना चाहिए । इन प्राणियों में और पुत्र में क्या अन्तर है ? शास्त्रकार इससे अधिक और क्या कह सकते हैं ? विशेष
आश्चर्य की बात तो यह है कि जिन पशु वगैरह को एक बार दुश्मन गिनते हैं, उनकी फिर पूजा भी करते हैं। जिस स को शत्र समझ कर मार डालते हैं, उसी सर्प को अर्थात् सर्प जाति को नागपंचमी के दिन दूध पिलाते हैं
और पूजते हैं। उसके चित्र पर की दीवारों पर बनाते हैं और आनन्द तथा पवित्रता मानते हैं। कृष्ण को सर्प की शय्या पर सुलाते हैं । महादेव के गले में सर्प लिपटाते हैं । इस प्रकार जो प्राणी आपके प्रभु को प्रिय है, उसी को आप मार डालते हैं तो आप अपने प्रभु के वैरी हुए या नहीं ?
कितनेक लोग तो इतने अनार्य होते हैं कि बेचारे मुर्गे, बकरे और