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ॐ जैन- तख प्रकाश
भाइयों को पता नहीं है कि आत्मा का दमन किये बिना इस लोक में या परलोक में कभी सुख नहीं मिल सकता | 'दुःखान्ते सुखम् ' अर्थात् पहले दुःख सहन करने पर ही सुख की प्राप्ति होती है, यह सर्वत्र सर्वदा सत्य है । दशवेकालिक सूत्र के आठवें अध्ययन में कहा है – 'देहदुक्खं महाफलं ।' अर्थात् शास्त्रोक्त रीति से देह को कष्ट देना महाफल का कारण है । इस लोक संबंधी कार्यों में, जैसे कि विद्या का अभ्यास करना, व्यापार करना, घर के अनेक काम करना, इत्यादि में, पहले दुःख उठाना पड़ता है और फिर सुख की प्राप्ति होती है। बीमारी हो जाने पर उसे शान्त करने के लिए age षध भी लेनी पड़ती है, पथ्य का भी पालन करना पड़ता है। इस प्रकार पहले कष्ट सहन करने के पश्चात् ही स्वस्थता का सुख मिलता है । यही बात धर्म के विषय में समझनी चाहिए। धर्म के कामों में, व्रत, नियम, तप आदि करने में पहले दुःख प्रतीत होता है, पर वास्तव में वह दुःख नहीं हैं, क्योंकि उस नाम मात्र के दुःख में परम सुख रहा हुआ है । धर्मकार्य में अल्प दुःख और महान् सुख है। ऐसा जान कर लौकिक मिध्यामय विचारों और चारों का त्याग करके सच्चे देव, सच्चे गुरु और सच्चे धर्म को स्वीकार करो और परम सुख के भागी बनो ।
७ - लोकोचर मिथ्यात्व
लोकोत्तर मिथ्यात्व के तीन भेद हैं- (१) लोकोत्तर देवगत मिथ्यात्व (२) लोकोत्तर गुरुगत मिथ्यात्व और लोकोत्तर धर्मगत मिथ्यात्व ।
जो तीर्थङ्कर कहलाता हो, तीर्थङ्कर- सरीखा वेष भी धारण करता हो, किन्तु जिसमें तीर्थंकर के लेश मात्र भी गुण न हों, जो अठारह दोषों से भरा हुआ हो, ऐसे पुरुष को तीर्थङ्कर (देव) मानना, तथा वीतराग भगवान् के नाम की मनौती मानकर इस लोक संबंधी सुख, धन, पुत्र, नीरोगता आदि की इच्छा करना, दुनियादारी की झंझटें दूर करने की इच्छा करना अथवा इसके लिए तीर्थङ्कर भगवान् का स्मरण, जप आदि करना, लोकोत्तर देवगत मिथ्यात्व है ।