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* जैन-तत्र प्रकाश *
अनादि अनन्त मानते हैं। आपके सिद्धान्तशिरोमणि ग्रन्थ के गोल नामक अध्याय में भास्कराचार्य ने लिखा है कि चन्द्र, बुध, शुक्र, सूर्य, मंगल, गुरु शनि और नक्षत्रों के वर्तुल मार्ग से घिरा हुआ और अन्य के आधार बिना पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाशमय यह भूपिण्ड गोलाकार हो अपनी शक्ति से ही आकाश में निरन्तर रहता है । इसके पृष्ठ पर दानव, मानव,देव तथा दैत्य सहित विश्व चारों ओर है।
यहाँ यह प्रश्न किया जा सकता है कि जीव को सुखी, दुखी करने वाला कौन है ? इस प्रश्न के उत्तर में कहा जाता है कि जीव पुण्यकर्म का उपार्जन करके उसका फल भोगते समय सुखी होता है और पापकर्म का उपार्जन करके उसका फल भोगते समय दुःखी होता है। ऐसा ही कहा भी है:
सुखस्य दुःखस्य न कोऽपि दाता, परो ददातीति कुबुद्धिरेषा । पुराकृतं कर्म तदेव भुज्यते,
शरीरकार्य खलु यत् त्वया कृतम् ।। अर्थात्---इस संसार में जीवों को सुख और दुःख देने वाला कोई भी नहीं है । सब जीव अपने-अपने कर्मानुसार ही सुख-दुःख रूप फल भोगते हैं। श्रीमद्भागवत स्कन्ध १०, अध्याय २४ में कहा है:
___ कर्मणा जायते जन्तुः, कर्मणैव विपद्यते ।
___ सुखं दुःखं भयं क्षेम, कर्मणैवाविपद्यते ॥ अर्थात् कर्म से ही जीव पैदा होता है और कर्म से ही मरता है। सुख, दुःख, भय, क्षेम यह सब कर्म से ही होते हैं । भगवद्गीता, अध्याय ५ में कहा है:
न कर्तृ त्वं न कर्माणि, लोकस्य सृजति प्रभुः ।
न कर्मफलसंयोग, स्वभावस्तु प्रवर्तते ॥ अर्थात-प्रभु न किसी के कर्तुत्व को उत्पन्न करता है, न किसी के कर्म को सरजता है और न किसी के कर्म का फल देता है । यह सब काम स. भाव से ही होता है।