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जैन-तत्त्व प्रकाश
तो फिर अवस्था बदलने की क्या आवश्यकता हुई : प्रयोजन के बिना कोई किसी कार्य में प्रवृत्त नहीं होता। जब परमब्रह्म को बहु रूप में प्रकट होने की इच्छा हुई और वह बहु रूप में प्रकट हुआ तो इससे स्पष्ट सिद्ध होता है वह पहले सुखी नहीं था । और फिर सुखी हुआ ।
प्रतिपक्षी-कार्य करने में परमब्रह्म को जरा भी देर नहीं लगती । उस की इच्छा होते ही तत्काल कार्य बन जाता है।
पूर्वपक्षी-यह बात तो स्थूल काल की गिनती के विषय में है। सूक्ष्म काल का विचार करें तो पहले इच्छा होना और फिर कार्य हो जाना, यह दोनों बातें एक समय मात्र में संभव नहीं हैं। इच्छा होना और फिर इच्छा के अनुसार कार्य होना, इन दोनों के बीच में थोड़ा-सा काल भी अवश्य व्यतीत होगा। दोनों का काल एक नहीं हो सकता। अतः यह मानमा पड़ेगाकि पहले इच्छा हुई और फिर उस इच्छा के अनुरूप कार्य हुआ।
प्रतिपक्षी-परमब्रह्म की इच्छा होते ही तत्काल माया उत्पन्न होती है। और फिर माया ही सृष्टि उत्पन्न करती है ।
पूर्वपक्षी-ब्रह्म का और माया का स्वरूप एक ही है अथवा भिन्न-भिन्न ?
प्रतिपक्षी--भिन्न-भिन्न है । परब्रह्म सच्चिदानन्द रूप है और माया जड़ है।
पूर्वपक्षी-आपके माननीय गौतम ऋषि प्रणीत न्यायदर्शन के चौथे अध्याय में कहा है किव्यक्त (प्रकट) वस्तु से वस्तु की उत्पत्ति होती है, यह बात प्रत्यक्ष प्रमाण सेसिद्ध है। जड़ से चेतन की अथवा चेतन से जड़ की उत्पत्ति कदापि नहींहो सकती। तो फिर चेतन रूप अव्यक्त ब्रह्म से माया रूपजड़ की उत्पत्ति कैसे हो गई ? फिर बतलाइए कि जीव की उत्पत्ति ब्रह्म से हुई अथवा माया से हुई है।
प्रतिपक्षी ब्रह्म से। पूर्वपक्षी-तो फिर माया से क्या हुआ ? प्रतिपक्षी-माया से तो जीव भ्रम में पड़ता है।