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* जैन-तत्त्व प्रकाश
सूर्य, चन्द्र आदि नियत समय पर ही उदित और अस्त होते हैं । शीतकाल में ठंड पड़ती है, उष्णकाल में गर्मी पड़ती है और वर्षाकाल में वर्षा होती है। यह सब नियत समय पर ही होता है । उत्सर्पिणी काल के छह-छह आरे भी निश्चित समय पर ही प्रारम्भ और समाप्त होते हैं । तीर्थङ्कर, चक्रवर्ती, वासुदेव, बलदेव, केवली, साधु, श्रावक भी योग्य काल में ही होते हैं और योग्य काल में विच्छेद को प्राप्त होते हैं ।
वर्ण, रस, गंध और स्पर्श आदि भी काल के आधीन हैं। अधिक क्या कहें, संसार-भ्रमण करना और परीत संसारी बन कर मोक्ष जाना भी काल के अधीन है अर्थात् काल का परिपाक होने पर ही संभव है। इस प्रकार अपने मत का समर्थन करने वाला कालवादी कहता है कि एक मात्र काल ही सब का कारण है।
[२] स्वभाववादी-एकान्त स्वभाववादी का कथन है कि स्वभाव ही सब का कारण है। विश्व में जो होता है, स्वभाव से ही होता है और स्वभाव के बिना कुछ भी नहीं होता। काल से कुछ नहीं होता-जाता। अगर काल से ही कार्य होता तो स्त्री जवान होने पर भी उसे दाढ़ी-मूछ क्यों नहीं आती ? वंध्या स्त्री को सन्तान की प्राप्ति क्यों नहीं होती ? हथेली में बाल क्यों नहीं उगते १ जीभ में हड्डी क्यों नहीं है ?
वनस्पतियाँ अनेक प्रकार की होती हैं। प्रत्येक वनस्पति में उसके स्वभाव के अनुसार ही रस उत्पन्न होता है। काल का परिपाक होने पर भी किसी-किसी वनस्पति में फल लगते ही नहीं है । इसका कारण उसका स्वभाव ही है । इसी प्रकार मछली आदि जलचर प्राणियों का जल में रहने का, पक्षियों का आकाश में उड़ने का और चूहा तथा सर्प आदि का भूमि पर रहने का स्वभाव है । कांटे का तीखापन, हंस की धवलता, बगुले का कपटीपर, मोर के रंग-विरंगे पंख, कोयल का मधुर स्वर, कौवे की कर्कश वाणी, सर्वे के मुख में प्राणहारी विष, सर्प की मणि में विषहरण की शक्ति, पृथ्वी की कठिनता, पानी की तस्लता, अनि.की उष्णता, हवा की चपलता, सिंह का: