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* मिथ्यात्व
भो भोः प्रजापते ! राजन् ! पशून् पश्य त्वयाऽध्वरे, संज्ञापिता freeन्धान निर्घृणा न सहस्रशः ॥ एते त्वां सम्प्रतीक्षन्ते स्मरन्तो वैशसं तब, सम्यरे तमय: कूटैरिछन्दन्त्युत्थितमन्यवः
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प्रजापति प्राचीनवर्हि राजन् ! तू ने घोर अन्याय किया है । कुगुरुओं के मिथ्या उपदेश के जाल में फँस कर, वेद की आज्ञा के रहस्य को विना समझे, उसका उल्टा अर्थ करके दीन - पशुओं की ओर नजर न करते हुए, ट करने वाले हजारों पशुओं को तू ने यज्ञ के नाम पर जला डाला है । वे सब पशु तुझ से बदला लेने के लिए तेरी मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहे हैं । तेरी आयु समाप्त होते ही वे अलग-अलग तेरा वथ उसी प्रकार करेंगे, जैसा ने उनका वध किया है !
नारद ऋषि का यह उपदेश सुनकर प्राचीनवर्हि ने हिंसा - धर्म का त्याग कर दिया । भाइयो ! हिन्दूधर्म के ग्रंथ स्वयं ही ऐसे प्रभावशाली ढंग से हिंसा का विरोध करते हैं । ऐसे सच्चे उपदेश को स्वीकार न करते हुए, स्वेच्छा
* धर्म समझ कर पशुहिंसा करने वाला अधोगति पाता है, इसका प्रमाण:--- देवोपहारव्याजेन यज्ञव्याजेन येऽथवा ।
घ्नन्ति जन्तून् गतघृणा घोर। ते यान्ति दुर्गतिम् ॥
अर्थात्-देवता को भेट चढ़ाने या यज्ञ के बहाने से जो निर्दय लोग प्राणियों की हिंसा करते हैं, वे मर कर घोर दुर्गति में जाते हैं ।
अन्धे तमसि मज्जामः पशुभिर्ये यजामहे । हिंसा नाम भवेद् धर्मो, न भूतो न भविष्यति ॥
अर्थात् — जो लोग पशुओं को मार कर यज्ञ करते हैं, वे अन्धतमस में (सातवें नरक में या घोर अन्धकार में ) डूबते हैं। हिंसा न कभी धर्म हुआ है और न कभी होगा ही । निर्दोष यज्ञ के सम्बन्ध में व्यास महर्षि कहते हैं:
ज्ञानपालि परिक्षिप्ते, ब्रह्मचर्य - दयाम्भसि । स्नात्वाऽतिविमले तीर्थे, हरी ॥ ध्यानान जीवकुण्डस्थे, दममारुतदीपिते ।
सत्कर्मसमित्क्षेपैरग्निहोत्रंकु रूत्तमम् ॥ कषायपशुभिदुष्टैर्धर्मकामार्थनाशकैः शममन्त्रहुतैर्यज्ञं विधेहि विहितं बुधैः ॥
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