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मिथ्यात्व
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प्रश्न-साधु परिपूर्ण दया का पालन कर सकते हैं, किन्तु हम गृहस्थ ठहरे। हम लोग पूर्ण दया का पालन किस प्रकार कर सकते हैं ?
उत्तर-यह कथन सत्य है । गृहस्थ-दशा में सम्पूर्ण दया का पालन करना बहुत ही कठिन है बल्कि सम्भव नहीं है। फिर भी अपने से जितनी बन पड़े उतनी दया तो पालना ही चाहिए और फिर जो-जो हिंसा अपने से हो उसे हिंसा समझ कर उसका पश्चात्ताप और प्रायश्चित्त अवश्य करना चाहिए। जितनी हो सके, प्रतिदिन हिंसा का त्याग करते जाना चाहिए और सम्पूर्ण हिंमा के त्याग की अभिलाषा रखनी चाहिए । सर्वथा हिंसा का त्याग करने वाले महापुरुषों का गुणगान करना और अवसर आने पर स्वयं सर्वथा हिंसा त्याग कर, मुनिपद धारण करके अपने को कृतार्थ
और भाग्यशाली नानना । गृहस्थ के लिए यह महान् सार है । ऐसी समझ से काम लेते हुए, विवेकहीन और भयभीत न होकर सत्यासत्य का निर्णय करना चाहिए और अनाभिग्रहिक मिथ्यात्व का त्याग करना चाहिए।
३-आभिनिवेशिक मिथ्यात्व
कितनेक मताग्रही लोग अपने मन में तो अपनी धर्ममान्यता और कल्पनाओं का मिथ्यापन समझ लेते हैं, किन्तु मान-अभिमान के कारण वेश का त्याग नहीं करते। अपने पकड़े हठ का भी त्याग नहीं करते
और अपनी बात को पकड़े रहते हैं। कोई शास्त्रज्ञ महात्मा उन्हें न्यायपूर्वक समझाता है तो उनके सामने तरह-तरह के कुतर्क उपस्थित करते हैं। खोटे हेतु और खोटी युक्तियाँ देकर अपने कुमत की स्थापना करते हैं। उन्सूत्र प्ररूपणा करने से डरते नहीं हैं। श्रीजिनेश्वरदेव के एक वचन की उत्थापना करने में अनेक वचनों की उत्थापना कर डालते हैं। कदाचित् उत्तर न मुझे तो तत्क्षण क्रोध के वश होकर शुद्ध शिक्षा देने वाले गीतार्थं महात्मा का तिरस्कार करते हैं। क्रोध में आकर जो-जो शास्त्रार्थ अपने मत को बाधाकर होते हैं, उन सवको उलट देते हैं। स्वमति-कल्पना से मिथ्या ग्रन्थ कथा और चारित्र आदि की रचना कर डालते हैं और इस प्रकार अनन्त संसार की वृद्धि करने वाले पाप से डरते नहीं हैं। भोले लोगों को अपने मत के अनु