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* मिथ्यात्व*
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खणमित्तसुक्खा बहुकाल-दुक्खा,
खणी अणत्थाण हु कामभोगा ॥ अर्थात् -- काम (शब्द तथा रूप) और भोग (रस, गंध, स्पर्श) अपथ्य आहार की तरह क्षण मात्र सुख देने वाले, अनन्त काल तक दुःख देने वाले और घोर अनर्थों की खान हैं। इस प्रकार जो वस्तु किंचित् मात्र सुख देती हो और चिरकाल तक दुःख देती हो, जो ऊपर-ऊपर से सुख देती प्रतीत हो
और जिसके भीतर दुःखदायिनी पक्ति भरी पड़ी हो और साथ ही जो सच्चे सुख की प्राप्ति में अन्नराय रूप ही उसे सुखकारक कसे कहा जा सकता है ? कहा भी है
जा सुख भीतर दुःख वसे, सो सुख है दुख रूप । अतएव भोगापभोगों को भोगना स्वदया नहीं है किन्तु ज्ञानपूर्वक विचार करना शि-हे प्रात्मन् ! अगर तू हिंसा, झूठ, चोरी, मथुन आदि अठारह पापस्थानों का संबन करंगा तो इस भव में शारीरिक एवं मानसिक पीड़ा का पात्र बनंगा और आगामी भा में नरक, तियञ्च आदि गतियों की घोर वेदना भोगेगा। ऐमा सनम कर इन पापकारी कार्यों से अलग हो जा। ऐसा करने से तू थोड़े ही काल में परम सुखी हो जायगा । इस प्रकार की स्वदया लाकर अपनी आत्मा को अकार्य से बचा लेना ही सच्ची स्वदया है ।
(२) पृथ्वी, पानी आदि पद काय के जीवों की रक्षा करना परदया है । स्वदया में परदया नियमा है, अर्थात् स्वढ्या पालने वाला आत्मा परदया का पालन करता ही है। किन्तु परदया में स्वदया की भजना है, अर्थात् परदगा को पालने पाला श्रात्मा स्वदया का पालन करना ही है, ऐसा नहीं कहा जा मकता । परदया के माय म्बद या हो भी सकती है और नहीं भी हो सकती । इस प्रकार दया में ही समस्त सद्गुणों का समावेश हो जाता है। कहा भी है:
अहिंसैर परो धर्मः, शेषस्तु व्रतविस्तरः । तस्यास्तु परिरक्षाये, पादपस्य यथा इतिः ।