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* जन-तत्त्व प्रकाश *
बजा कर प्रसन्न करना चाहते हैं ! कोई-कोई माला लिये होते हैं । इससे प्रतीत होता है कि उनमें अपूर्णता है। ध्यान में चित्त एकाग्र न रह सकने के कारण अथवा गिनती स्मरण में न रहने के कारण उन्हें माला का साधन ग्रहण करना पड़ता है । अथवा माला के द्वारा अपने से भी बड़े किसी और देव का जाप करने के लिए माला रक्खी है। जिस देव के पास किसी अन्य देव की मूर्ति बिठलाई है, वह निर्वल है। उसे अभी दूसरे की सहायता की आवश्यकता है । अथवा वह मानता है कि दूसरे के सामीप्य से मेरी शोभा बढ़ेगी। जो मांसभक्षी है, वह अनायें है । जो अन्न फल आदि सचित्त वस्तुओं का भोग करना चाहता है वह अव्रती है। जो देव पुष्प अतर आदि संघता है वह अतृप्त है। उसकी इन्द्रियाँ निरंकुश हैं । जो पूजा का इच्छुक है वह अभिमानी है । जो देव रुष्ट होकर दुःख देता है और तुष्ट होकर सुख देता है, वह राग-द्वेष से युक्त है । जो देव प्रतिष्ठा की चाहना करता है वह ढोंगी है, उसने अभी तक अभिमान का त्याग नहीं किया मालूम होता है । इस प्रकार अनेक दुर्गुणों से युक्त देवों को सच्चा देव कैसे माना जा सकता है ? इसके अतिरिक्त इनके शास्त्रों से यह भी तो निश्चय नहीं होता कि वास्तव में वह देव हैं, या मनुष्य हैं या इन दोनों योनियों से निराले ही हैं। उदाहरणार्थ-कहते हैं ब्रह्म में से माया की उत्पत्ति हुई । माया में से सत्व,रज और तम इन तीन गुलों की उत्पत्ति हुई । फिर सत्व गुण से विष्णु देव, रजो गुण से ब्रह्मा देव
और तमो गुण से शंकर देव की उत्पत्ति हुई । अब इस मान्यता पर विचार कीलिए । माया जड़ है और ब्रह्म वेतन है तो फिर चेतन से जड़ की उत्पत्ति किस प्रकार संभव हो सकती है ? और फिर उस जड़ माया में से तीन गुण
और तीन गुणों से तीन चेतन देव-ब्रह्मा, विष्णु, महेश कैसे उत्पन्न हो सकते हैं ? मिट्टी से बड़ा बन सकता है, पर बस कैसे बन सकता है ? जैसा उपादान कारण होता है वैसा ही कार्य होता है । जो गुण उपादान कारण में होते हैं, वही कार्य में बाते हैं । उपादान कारण अगर जड़ है तो उसका कार्य भी जड़ ही होगा। अगर चेतन है तो उसका कार्य भी चेतन होगा। मगर यहाँ तो चेसन से जड़ और जड़ से चेसन की उत्पचि बतलाई गई है। पर येता मामने से कार्यकारभाव का सिद्धान्त ही खंडित हो जाता है ।