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मिथ्यात्व
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यह बात किसी देव की निन्दा करने के लिए नहीं कही गई है, मगर समीचीन विचार करने के लिए कही गई है। थोड़ा और देखिए । चौबीस अवतारों में से कोई पूर्ण अवतार बतलाये जाते हैं और कोई अंशअवतार कहे जाते हैं। यह बात भी आश्चर्यजनक है । जब ईश्वर का पूर्ण अवतार हुआ तो उस अवतार रूप व्यक्ति में ईश्वर आ रहा; ऐसी स्थिति में दूसरी जगह ब्रह्म का अभाव होने पर समस्त जगत् शून्य रूप हो जाना चाहिए । और जब ईश्वर ने अंश-अवतार धारण किया तो ईश्वर को तो सभी जगह आप मानते हैं, फिर जगत् के जीवों में और ईश्वर में क्या अन्तर रहा ? ईश्वर के थोड़े-थोड़े गुण तो सभी जीवों में हैं ? फिर अंश-अवतार और जगत के सभी दूसरे जीव एक सरीखे क्यों नहीं होंगे ?
___ इस प्रकार लौकिक शास्त्रों में देव के संबंध में बहुत-सी बातें हैं । उनमें से पाठकों के समझने के लिए यहाँ थोड़ी-सी चर्चा की है। इसका प्रयोजन यही है कि ऐसे देवों को देव रूप मानना उचित नहीं है। ___जो नामधारी देव नृत्य-गान आदि से प्रसन्न होते हैं, जो छल-कपट
और दगाबाजी करते हैं, जो परस्त्रीगमन और यहाँ तक कि पुत्रीगमन से भी नहीं बचे हैं, जो जुआ खेलते हैं, मांसभक्षण करते हैं, मदिरापान करते हैं, वेश्यागमन करते हैं, शिकार खेलते हैं, चोरी और जारी भी करते हैं, इस तरह जो सातों कुव्यसनों से नहीं बचे हैं, उन्हें समझदार मनुष्य देव कैसे मान सकते हैं ? तथा जिनके आगे स-स्थावर जीवों की बात होती है, बकरे, मुर्गे, भैंसा आदि प्राणियों की हत्या होती है, मांस का ढेर लगता है, रक्त का नाला बहता है, और भी महा अनर्थ होते हैं, ऐसों को क्या कोई भी विचारशील मनुष्य देव मान सकता है ?
विशेष अफसोस तो इस बात का है कि कितनेक भोले जैन भाई भी नरेन्द्रों सुरेन्द्रों के परम पूजनीय, पूर्वोक्त समस्त दोषों से रहित, परम पवित्र प्रहन्त भगवान् के उपासक होते हुए भी, भ्रम के वशीभूत होकर धन की प्राप्ति के लिए, स्त्री की प्राप्ति के लिए, पुत्र की प्राप्ति के लिए, शारीरिक आरोग्य आदि की प्राप्ति के लिए, पूर्वोक्त दोषों से दूषित देवों के स्थानों में जाते हैं और उनके भागे अपना मस्तक पड़ते हैं, उनकी पूजा करते हैं और