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ॐ जैन-तत्त्व प्रकाश
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सार भरमा कर पवित्र और बच्चे साधुओं की संगति छुड़ा कर ऐसे साधुओं को दान, मान, सरकार देना बंद करवा कर, फूटी हुई (छेद वाली) नाव की तरह स्वयं भी डूबते हैं और अनुशियों को भी पाताल में ( नरक में) ले जाते हैं । सत्य धर्म की इच्छा वाले भव्यों को ऐसे उत्सूत्रप्ररूपक हठी पुरुषों की वास्तविकता का पता नहीं चले तब तक तो लाचारी हैं, किन्तु जब उन्हें पहचान लें तो तुरन्त उनकी संगति छोड़कर उनका उपदेश सुनना त्याग दें | अपनी मका हित चाहने वाले प्रत्येक व्यक्ति का यह खास कर्त्तव्य है कि उसे जब अपनी मान्यता मिथ्या मालूम हो जाय तब हठाग्रही और कुतर्की या क्रोधी न होकर तुरन्त उस मिथ्या मान्यता का त्याग कर दे और जो मान्यता नवी मालूम पड़े उसे स्वीकार कर ले और आभिनिवेशिक मिथ्यात्व को त्यागे ।
४ - सांशयिक मिथ्यात्व
कितनेक जैन मतावलम्बी ऐसे हैं जो श्रीवीतराग की वाणी की कोईकोई गहन बात, बुद्धि की कमी के कारण समझ में न आने पर और अन्य धर्म वालों से अथवा आधुनिक पाश्चिमात्य मान्यताओं से विरुद्ध मालूम पड़ने पर जैनमत पर शंका करने लगते हैं । वे कहते हैं-कैसे मान लिया जाय कि यह बात सच्ची हैं ? या तो भगवान् ने मिथ्या प्ररूपणा की है या श्राचार्यों ने मिथ्या लिखा है ! उनका मन ऐसा डाँवाडोल हो जाता है । वे यह नहीं सोचते कि सम्पूर्ण रूप से दया का पालन करने वाले और सत्य को जानने वाले पूर्ण रूप से कृतकृत्य स्वार्थरहित जिनेश्वर देव मिथ्या प्ररूपणा किस लिए करेंगे ? क्या वीतराग प्रभु को अपना मत चलाने का अभिमान था ? क्या उनमें मत संबंधी ममता थी ? नहीं । area शास्त्र की कोई बात अगर समझ में न आवे तो विचारशील पुरुष को अपनी बुद्धि की मन्दता समझनी चाहिए, किन्तु तीर्थङ्कर भगवान् या गीतार्थ आचार्यों का तनिक भी दोष नहीं समझना चाहिए । जब कभी ज्ञानी आचार्यों या विद्वानों का योग मिले तब शंकाओं का समाधान करना चाहिए । फिर भी शंका रह जाय तो ज्ञानावरण कर्म का उदय जान कर केवली भगवान् के वचनों को