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ॐ जन-तत्वप्रकाश
भनेंगे, पूजेंगे, वन्दना करेंगे और श्राराधन करेंगे, इसी से हमारा उद्धार हो जायगा।
इस प्रकार का विचार करने वाले बेचारे अधबीच में ही रह जाएंगे। न इस पार, न उस पार । ऐसे भोले लोगों को इतना तो सोचना चाहिए कि अगर सभी धर्म खरीखे हैं तो सब की अरूपणा में इतना अन्तर क्यों पड़ता है ? सभी अपने-अपने पक्ष को क्यों खींचते है ? इस प्रकार विचार करने से सिद्ध होता है कि सब धर्मों में से कोई एक धर्म सच्चा है । वह सच्चा धर्म कौन-सा है, यह जानना हो तो आत्मानुभव से, दीर्घ दृष्टि से, न्याय दृष्टि से और निष्पक्ष भाव से विचार करना चाहिए कि जिस एक महान् और सर्वमान्य वस्तु के आधार पर सब धर्म चलते हैं, और जिसे सभी धर्म वाले उत्तम गिनते हैं, वह वस्तु जिसमें सम्पूर्ण हो, वही धर्म सब धर्मों में सच्चा है। ऐसी महापवित्र, मांगलिक और वन्दनीय वस्तु कौन-सी है ? और उसका नाम क्या है ? उस महान् वस्तु का नाम है-दया। 'अहिंसा परमो धर्मः' । यह भगवती दया माता जिस धर्म में सर्वांश में विद्यमान हो, उस धर्म को सच्चा और जो उसका विरोध करते हों या जिनमें पूर्ण रूप से वह न पाई जाती हों के कपोल-कल्पित हैं।
शंका-धर्म की सचाई के लिए आपने एक मात्र दया का ही नाम लिया और सत्य, शील, सन्तोष, क्षमा आदि गुणों को क्यों नहीं गिना ?
समाधान-दया माता में इन सभी गुणों का समावेश हो जाता है। दया दो प्रकार की है-(१) स्वदया और (२) परदया। अपने आत्मा की दया करना स्वदया है । स्वदया का अर्थ यह नहीं समझना चाहिए कि खूब खान पान और खूब भोग-विलास करके, आत्मा को पुद्गलानन्द में मस्त बना कर सुखी होना चाहिए । पौद्गलिक सुख सच्चा सुख नहीं है। वह सुखाभासा है-सुख सरीखा मालूम होता है, पर सच्चे सुख का लक्षण उसमें नहीं पाया जाता । ऐसे सुख में रचे-पचे रहने से और पाप-पुण्य का विवेक भुला कर जीवन पूरा कर देने से भयंकर परिणाम भुगतना पड़ता है। शास्त्र में