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® जैन-तत्त्व प्रकाश
१-श्राभिग्रहिक मिथ्यात्व
कितनेक लोग समझते हैं कि जो बात हमारे ध्यान में आवे वही सच्ची और सब झूठी। ऐसे लोग यह सोच कर कि कहीं हमारी श्रद्धा भंग न हो जाय, सद्गुरु का समागम भी नहीं करते । जिनेश्वर भगवान् की वाणी का श्रवण-मनन भी नहीं करते, सत्यासत्य का निर्णय भी नहीं करते। वे हठाग्रही बने रह कर अपने माने हुए और रूढ़ि से चले आने वाले मार्ग पर ही चलते रहते हैं। अगर उन्हें कोई सत्य धर्म को समझाना चाहे तो वे कहते हैं-'हम अपने बाप-दादाओं का धर्म कैसे छोड़ सकते हैं ? वास्तव में देखा जाय तो वे जैसे बाप-दादाओं की धर्म-परम्परा से चिपटे रहते हैं, वैसे संसार की दूसरी बातों से नहीं चिपके रहते । विचार करके देखा जाय तो तुरन्त ज्ञात हो जायगा कि बाप-दादा कदाचित् अंधे, बहरे, लूले-लगड़े हों तो हमें भी अपने आँख, कान आदि तोड़-फोड़ कर वैसा ही बन जाना चाहिए ? बाप-दादा निर्धन हों तो आपको धन प्राप्त करने का उद्योग नहीं करना चाहिए ? और यदि अनायास धन प्राप्त हो जाय तो क्या फैंक देना चाहिए ? निर्धन ही रहना चाहिए ? यदि सत्य धर्म को अंगीकार करने में बाप-दादा की परम्परा नहीं छोड़ी जा सकती तो इन सब बातों में भी बापदादा सरीखा ही रहना चाहिए। पर ऐसा कोई करता नहीं। सिर्फ धर्म के विषय में नाहक ही बाप-दादाओं को बीच में ले आते हैं और मिथ्या मत का त्याग नहीं करते।
कुछ लोग कहते हैं हमारे धर्म में बड़े-बड़े विद्वान् हैं, धनवान हैं और सत्तावान् हैं । वे सभी क्या मूर्ख हैं ? परन्तु यह विचार नहीं किया जाता कि बड़े-बड़े विद्वान्, धनवान् और सत्ताधारी लोग जान-बूझ कर नादान बन कर, बेत्रावरू बन कर शराब पीते हैं ! उस समय वे मूर्ख नहीं हैं तो क्या हैं ? सच बात तो यह है कि मोहनीय कर्म की शक्ति बहुत प्रबल है। इस शक्ति के प्रताप से सच्चे धर्म की परीक्षा नहीं हो सकती। मोह रूपी मदिरा के नशे में चूर हुए मनुष्य को सब विपरीत ही विपरीत नज़र आता