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मिथ्यात्व
बुझिजत्ति तिउट्टिजा, बंधणं परिजाणिया । किमाह बंधणं वीरो, किं वा जाणं तिउट्टइ ।।
-श्रीसूत्रकृवांग, १ श्रु० १ ० 'मनुष्य को बोध प्राप्त करना चाहिए और बन्धन का स्वरूप समझ कर उसे नष्ट करना चाहिए। श्रीवीर प्रभु ने बन्धन किसे कहा है ? और कैसा ज्ञान प्राप्त करने से बन्धन का नाश हो सकता है ?
आत्मा अनादि काल से बन्धनों में आबद्ध है। उन बन्धनों से वह मुक्त हो सकता है, किन्तु सर्व प्रथम यह जान लेना आवश्यक है कि (१) बन्धन क्या है और (२) बन्धन से मुक्त होने का उपाय क्या है ? बन्धन का यथार्थ स्वरूप समझे बिना उससे मुक्ति नहीं प्राप्त की जा सकती।
बन्धन का आद्य और प्रधान कारण मिथ्यात्व है। मिथ्यात्व से ग्रस्त जीव न तो अपने वास्तविक स्वरूप को समझ पाता है, न बन्धन को समझ पाता है और न उससे छुटकारा पाने के उपायों को ही समझता है । अतएव सबसे पहले मिथ्यात्व को समझना और उसका त्याग करना आवश्यक है। इस उद्देश्य से यहाँ मिथ्यात्व का स्वरूप पहले बतलाया जाता है। योगशास्त्र में कहा है:
'अनित्याशुचिदुःखात्मसु नित्यशुचिसुखानात्मख्यातिरविद्या ।' अर्थात्