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सूत्र घमॐ
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लाता है न मिथ्यादृष्टि ही। यह जीव कृपई मिट कर. शुकपदी होकर, कुछ कम अर्धपुद्गलपरावर्तन में संसार का अन्त करेगा।
(३) मिश्रा, मानक- जैसे श्रीखण्ड खाने में बहा मोटा स्वाद आला है, इसी प्रकार जिस जीव की श्रद्धा न सम्बक होती है पर मिथ्या होती है किन्तु मिश्र रूप होती है, उन जीव की अमस्या को मात्र गुणस्थान कहते हैं। यह जीव देशोन अर्धपुद्गलपरावर्तन से मुक्ति प्राप्त करता है।
(४) अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानक-अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोम तथा दमनमोहनीर को तीन प्रकृतियों का उपशम, योपशम अथवा क्षय करके सुगुरु सुधर्म और सुदेव पर श्रद्धा करने पाले, नाघु आदि चारों तीर्थों के उपासक, तवरवानी जांच की अवाजविरत नाष्टि गुणस्थान कहलाती है। यदि पहले आयु का बंधन हो गया तो १ नरक गति, २ तियं च गति, ३ भवनपति, ४ वाणव्यन्तर, ५ ज्योतिषी, ६ स्त्रीवेद और ७ नपुंसकवेद, इन मात बोलों को नहीं बाँधता। कदाचित् सम्यक्त्व होने से पहले प्रायुबंध हो गया हो तो उसे भोग कर उच्चमति प्राप्त करता है।
(५) देशविरतिगुणस्थानक-पूर्वोक्त ७ तथा अस्मिानावरण चौकड़ी, इन ११ प्रकृतियों का उपशम आदि करके श्रावक के १२ व्रत, ११ प्रतिमा, नवकारसी आदि तप वगैरह धर्मक्रियाओं में उद्यत रहने वाले संयमासंयमी जीव की अवस्था देशविरति गुणस्थानक कहलाती है। यह जीव यदि पडिवाई न हो तो जघन्य तीसरे भव में और उन्कृट १५ भव में मोक्ष जाता है।
(६) प्रमत्तसंयत गुणस्थान-पूर्वोक्त ११ प्रकृतियो का और अन्यालानावरण कषाय की चाकड़ी का, इस प्रकार १५ प्रकृनियों का क्षयोपरम आदि करके साधु बने, किन्तु दृष्टि की चपलता, भाव की चपलता, भाषा की चालता,
और कषाय की चपलता के कारण प्रमाद बना रहता है और परिपूर्ण शुद्ध साधुवृत्ति का पालन नहीं कर सकता, ऐसी जीव की अवस्था को प्रमत्तसंयत