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* जन-तत्र प्रकाश *
__ इन इक्कीस गुणों को प्राप्त करके अन्तर्महल में ५ ज्ञानावरणीय, ह दर्शनावरणीय और ५ अन्तराम---इस प्रकार तीन वातिया कर्मों को खपाता है और १३वाँ गुणस्थान प्राप्त करता है ।
(१३) सयोगकंवली गुणस्थान- यह जीव केवलज्ञान, केवलदर्शन से सम्पन्न, सयोगी, सशरीरी, सलेशी, शुक्ललेली, यथाख्यातचारित्री, क्षायिक सम्यक्त्वी, पण्डितवीर्यवान, सुखमयानयुक्त होता है। जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोन (वर्ष कम) करोड़पूर्व तक इस गुणस्थान में रहता है।
(१४) अयोगकेवली गुणस्थान-चौदहवें गुणस्थान वाले अर्हन्त प्रभु शुक्लध्यान के चौथे पाये के ध्याता, समुच्छिन्नक्रियाअप्रतिपाती अनिवृत्ति ध्यानी होकर, मन वचन काय के योगों का निग्रह करके श्वासोच्छवास का निरोध करते हैं। इस प्रकार अयोगी केवली होकर शैलेशी (सुदर्शन मेरु) के समान निश्चल होकर शेष रहे हुए वेदनीय, श्रायु, नाम और गोत्र कर्म का क्षय करते हैं। श्रौदारिक, तैजस और कार्मण-इन तीनों शरीरों का त्याग करके मुक्त हो जाते हैं। जैसे एरंड का बीज अपने कोश रूपी बंधन से युक्त होकर ऊपर की ओर उछलता है, उसी प्रकार कर्मबन्धन से मुक्त जीव मुक्ति की ओर ऊर्ध्वगमन करता है । जैसे अग्नि की ज्वाला का स्वभाव ऊर्ध्वगमन करने का है, उसी प्रकार निष्कर्मी जीव का ऊर्ध्वगमन करने का स्वभाव होने से वह समश्रेणि, ऋजुगति, अन्य आकाशप्रदेशों का अक्गाहन किये विना, विग्रहगति-रहित, एक समय मात्र में सिद्धशिला को प्राप्त करके अनन्त, अक्षय, अव्यावाध, अनुपम सुखों का भोक्ता बन जाता है।
इस प्रकार सात नय, चार निक्षेप, चार प्रमाण आदि अनेक प्रकारों से नव तत्वों के स्वरूप का ज्ञान होना सूत्रधर्म है । इस सूत्रधर्म में द्वादशांगी वाणी वगैरह सम्पूर्ण ज्ञान का समावेश हो जाता है । इस ज्ञान का आज कोई पार नहीं पा सकता, फिर भी उसमें से यथाशक्ति प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील रहना ही मुमुक्षु जनों का कर्तव्य है ।
शास्त्रज्ञान अनन्त है । विद्याएँ अनेक हैं। परन्तु आयु अल्प है और उसमें भी अनेक विघ्न हैं । अतएक जैसे-हंस पानी को छोड़ कर इध को ग्रहण