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ॐ धर्म प्राप्ति
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कोई सम्पूर्ण शब्द को ग्रहण करके जानता है। [6] संदिग्ध-कोई शंकायुक्त समझता है । [१०] असंदिग्ध-कोई शंका-रहित समझता है । [११] ध्रुव--किसी का समझना टिकाऊ होता है और [१२] अध्रुव-किसी का समझना टिकाऊ नहीं होता।
पूर्वोक्त ३३६ भेदों में चार प्रकार की बुद्धि मिला देने से मतिज्ञान के ३४० भेद हो जाते हैं । चार बुद्धियों का स्वरूप इस प्रकार है:
(१) औत्पातिकी बुद्धि तात्कालिक सूझ को औत्पातिकी बुद्धि कहते हैं।
(२) वैनयिकी बुद्धि-विनय करने से प्राप्त होने वाली बुद्धि । (३) कार्मिकी बुद्धि-कार्य करते-करते जो अनुभवज्ञान होता है, वह ।
(४) पारिणामिकी बुद्वि-बालक, युवक, वृद्ध आदि को उम्र के अनुसार प्राप्त होने वाली बुद्धि ।
(२) श्रुतज्ञान-मतिज्ञान के पश्चात् शब्द और अर्थ के संबंध (वाच्यवाचक भाव संबंध) के आधार से जो ज्ञान होता है, वह श्रुतज्ञान कहलाता है । श्रुतज्ञान चौदह प्रकार का है:
(१) अक्षरश्रत-अ, इ आदि स्वरों क, ख आदि व्यंजनों के द्वारा जो ज्ञान होता है वह अक्षरश्रुत कहलाता है ।
(२) अनक्षरश्रत-अक्षरों का उच्चारण किये विना ही, खांसी से, छींक से, चुटकी से या नेत्र के इशारे से होने वाला ज्ञान ।
(३) संज्ञीश्रुत-विचारना, निर्णय करना, समुच्चय अर्थ करना, विशेष अर्थ करना, चिन्तन करना और निश्य करना, यह छह बातें संज्ञी जीवों में पाई जाती हैं। संज्ञी जीवों को होने वाला श्रुतज्ञान संज्ञिश्रुत कहलाता है।
(४) असंज्ञीश्रुत-असंज्ञी जीवों को होने वाला श्रुतज्ञान ।
(५) सम्यकश्रत-अहत्प्रणीत, गणधरग्रथित तथा जघन्य दस पूर्वथारी द्वारा रचे हुए शास्त्रों द्वारा होने वाला ज्ञान ।