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* सूत्र धर्म
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असातावेदनीय कर्म का अशुभ फल आठ प्रकार से भोगा जाता है(१) अमनोज्ञ शब्द की प्राप्ति (२) अमनोज्ञ रूप की प्राप्ति (३) अमनोज्ञ गंध की प्राप्ति (४) अमनोज्ञ रस की प्राप्ति (५) अमनोज्ञ स्पर्श की प्राप्ति (६) मन उदास रहना (७) वचन कठोर होना (८) शरीर रोगी और कुरूप होना । यह आठ प्रकार के सातावेदनीय से उलटे हैं।
(४) मोहनीयकर्म-आत्मा के सम्यक्त्व और चारित्रगुण का घात करने वाला कर्म मोहनीय कहलाता है। यह छह कारणों से बँधता है:[१] तीव्र क्रोध [२] तीव्र मान [३] तीव्र माया [४] तीव्र लोभ [५] तीव्र दर्शनमोहनीय-धर्म के नाम पर अधर्म का आचरण करना [६] तीव्र चारित्रमोहनीय-चारित्रधारी का वेष धारण करके अचारित्रधारी सरीखा आचरण करना।
मोहनीय कर्म पाँच प्रकार से भोगा जाता है-सम्यक्त्वमोहनीय अर्थात् सम्यक्त्व की मलीनता होना [२] मिथ्यात्व की तीव्रता होना [३] सम्यग्मिथ्यादृष्टि (मिश्रदृष्टि) प्राप्त होना [४] कषायवेदनीय (कषायचारित्रमोहनीय) अर्थात् क्रोध आदि चार कषायों बाला अथवा अनन्तानुबंधी आदि सोलह कषायों वाला होना [५] नोकषायवेदनीय (नोकषायचारित्रमोहनीय) अर्थात् हास्य आदि नौ नोकषाय वाला होना। इस तरह पाँच प्रकार से अथवा विस्तार से कहा जाय तो ३ दर्शनमोहनीय, हनोकषायचारित्रमोहनीय और १६ कषायमोहनीय, इस तरह २८ प्रकार से मोहनीयकर्म का फल भोगा जाता है।
(५) आयुकर्म जो कर्म जीव को किसी भव-विशेष में बनाये रखता है वह आयुकर्म कहलाता है। इसके चार भेद हैं-(१) नरकायुकर्म (२) तिर्यञ्चायुकर्म (३) मनुष्यायुकर्म और (४) देवायुकर्म । इनमें से नरकायु का बंध चार कारणों से होता है-महारंभ करने से अर्थात् जिनमें छह काय के जीवों की सदा हिंसा होती हो ऐसे कार्य करने से (२) महापरिग्रह से अर्थात प्रबल लालसा या तृष्णा रखने से (३) मद्य-मांस का आहार करने से (४) पंचेन्द्रिय जीवों की घात करने से ।