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* धर्म प्राप्ति है
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योग के निमित्त से होते हैं और स्थिति तथा रस बन्ध कपाय के निमित्त से । अगर योगों की चपलता अधिक होगी तो कमों के दलिक अधिक परिमाण में आएँगे। अगर चपलता कम होगी तो कम परिमाण में आएँगे। अगर कपाय तीव्र होगा तो कर्मों की स्थिति लम्बी पड़ेगी और अशुभ कर्मों का फल तीव्र होगा। अतः बन्धतत्त्व के विवेचन का सार यह है कि जहाँ तक सम्भव हो, योगों की चपलता का और कषाय का निरोध किया जाय ।
--मोक्षतत्त्व
मोक्ष, बन्ध का प्रतिपक्षी है ! उक्त आठों कर्मों के बन्ध वाला जीव, संवर और निर्जरा के द्वार। पूर्ण रूप से कर्मबन्ध से छूट जाता है, अर्थात्
आत्मा अपने शुद्ध---अनजी स्वरूप में आ जाता है, तब वह अवस्था मोक्ष कहलाती है। मोद किसी स्थान को नहीं कहते किन्तु कारहित जीव की शुद्ध अवस्था को ही मोक्ष कहते हैं । 'कृत्स्नकर्मविप्रमाक्षो मोघः' ।
मोक्ष प्राप्त करने के चार कारण हैं। उन चारों कारणों का जब समवाय होता है तब मोक्ष की प्राप्ति होती है । शास्त्र में कहा है:
नाणेण जाणई भावे, दंसणेण य सद्दहे । चरितेण निगिएहाई, तवेण परिसुज्झई ॥
-उत्तराध्ययन, अ० २८ अर्थात्--- सम्यग्ज्ञान द्वारा नित्य-अनित्य, शाश्वत-अशाश्वत, शुद्धअशुद्ध, हित-अहित, लोक-अलोक, आत्मा-अनात्मा आदि सब वस्तुओं का यथार्थ स्वरूप जाना जाता है । सम्यग्दर्शन द्वारा इन वस्तुओं के स्वरूप का यथावत् श्रद्धान किया जाता है। सम्यग्दर्शन द्वारा जिन वस्तुओं एवं भावों का श्रद्धान किया है, उनमें से जो आत्मा के लिए हितकर-मोक्षदाता हो उसका आचरण करना सम्यक चारित्र है । त्यागने योग्य का त्याग करना भी चारित्र के ही अन्तर्गत है। तप के द्वारा पूर्वोपार्जित कर्मों को क्षय किया