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® जैन-तत्त्व प्रकाश
प्रश्न- एक समय में दो उपयोग नहीं हो सकते, तो फिर शुभाशुभ आस्रव किस प्रकार हो सकता है ?
उत्तर-जैसे शास्त्र में धम्मावासा, अधम्मावासा और धम्माधम्मावासा तथा मिश्रगुणस्थानक और मिश्रयोग कहा है, उसी प्रकार यहाँ समझना चाहिए । गौण रूप से दूसरे योग का संबंध होता है किन्तु मुख्य रूप से एक ही योग की प्रवृत्ति होती है।
शब्दनय आस्रव के कारणभूत परिणामों के जो स्थान हैं उन्हें श्रास्रव मानता है। समभिरूढनय कर्म ग्रहण करने के गुणों को आस्रव कहता है। एवंभूतनय आत्मा के परिस्पन्दन (कंपन) को ही आस्रव मानता है।
__संवरतत्त्व पर सात नय-नैगमनय कारण को कार्य मानता है, अतः शुभ योग को संवर कहता है । संग्रहनय सम्यक्त्व आदि परिणामों की धारा को संवर कहता है । व्यवहारनय पाँच महाव्रत रूप चारित्र को संवर कहता है। जुसूत्रनय वर्तमान काल में आस्रव का निरोध करके नवीन कर्म के रोकने को संवर कहता है। समभिरूढनय की दृष्टि से मिथ्यात्व आदि पाँच
आस्रवों की वर्गणाओं से अलिप्त रहना, उसके असर को मंद करना तथा रूक्ष परिणाम करके कर्मप्रकृति से लिप्त न होना संवर है । एवंभृतनय शैलेशी (शैलों के ईश अर्थात् सुमेरु के समान निश्चल) और अकंप आत्मावस्था को संवर मानता है। यह स्थिति चौदहवें गुणस्थानवी वीतराग की समझनी चाहिए। श्रीभगवतीसूत्र में पाठ है-'काल सव्वेसि य । आया संवरे, आया संवरस्स अट्टे' इस पाठ में आत्मा को संवर कहा है, उस आधार पर यहाँ भी आत्मा को संवर कहा है।
निर्जरा तत्व पर सात नय-नैगमनय शुभ योग को निर्जरा कहता है। संग्रहनय कर्मवर्गणा के पुद्गलों को झटक कर दूर कर देने को निर्जरा कहता है। व्यवहार नय बारह प्रकार के तप को निर्जरा कहता है, क्योंकि रूप से निर्जरा होती है। ऋजुसूत्रनय वर्तमान काल में शुमध्यानी को निर्जरा मानता है। शब्दनय द्वादशगुणस्थानवी, शुभध्यान से निर्जरा करने वाले तथा ध्यान रूपी श्रमि से कर्मरूपी काष्ठों को दग्ध करने वाले