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जैन-तत्व प्रकाश
झागद-व्यतिरिक्त (तद्व्यतिरिक्त) के भी तीन भेद हैं- (१) लौकिक (२) कुत्रानिक (३) लोकोत्तर | इन तीनों का विवरण यह है—
(१) लौकिक- राजा, सेठ, सेनापति आदि अपने-अपने कार्यालय में जाकर अपना-अपना कर्त्तव्य बजाते हैं, वह लौकिक द्रव्य आवश्यक है 1
(२) प्राचनिक - पेड़ों की छाल या पसे पहनने वाले, मृगचर्म, या व्याघ्रचर्म धारण करने वाले, भगवी वस्त्र पहनने वाले, सम्यग्यदर्शन -सम्यग्ज्ञान से रहित, मात्र गामवारी तापस हैं तथा इनके अतिरिक्त ऐसे ही अन्य साधुवैरागी हैं, वे अपने नियमों के अनुसार जो ध्यान, भजन आदि आवश्यक क्रिया करते हैं, वह प्रवचनिक द्रव्य आवश्यक है ।
(३) लोकोचर - जो साधु के गुणों से रहित हैं, जो छह काय के जीवों की दया का पालन नहीं करते, जो बिगड़ैल घोड़े की तरह स्वच्छंद हैं, मदोन्मत हाथी की भाँति निरंकुश हैं, शरीर के शृंगार में आसक्त हैं, मठधारी हैं, तपस्या से रहित केवल श्वेत वस्त्रधारी हैं, जिनेश्वर देव की आज्ञा का उल्लंघन करने वाले हैं, वे दोनों समय प्रतिक्रमण करते हैं, उनकी यह क्रिया लोकोत्तर द्रव्यमावश्यक है ।
(४) भावनिक्षेप - जिस अर्थ में शब्द का व्युत्पत्तिनिमित्त या प्रवृत्तिनिमित्त बराबर घटता हो, वह भावनिक्षेप है । अर्थात् जिस पदार्थ में जो पर्याय वर्त्तमान में विद्यमान है, उसे तदनुसार कहना भावनिक्षेप है ।
भावनिक्षेप के दो भेद हैं- ( १ ) आगम से भाव निक्षेप - शुद्ध उपयोग सहित अर्थात् भावार्थ में उपयोग लगाकर, एकाग्र चित्त से अन्तःकरण की रुचिपूर्वक शास्त्र पढ़ने वाला । नो श्रागम भावनिक्षेप के तीन भेद हैं-- (१) लौकिक - राजा, सेठ आदि उपयोग रख करके प्रातःकाल महाभारत और सायंकाल रामायण आदि श्रवण करते हैं, वह लौकिक भाव अवश्यक है ।
* रामायण, महाभारत आदि कुप्रवचनिक शास्त्र हैं, फिर भी यहाँ लौकिक भाव आवश्यक में जो गणना की गई है, उसका कारण यह है कि लोग अपने कख्याण के लिए उनका श्रवण करते हैं ।