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* सूत्र धर्म *
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'जीव' कहलाएगी। जीव तत्र के समान अजीव तत्व पर भी द्रव्यनिक्षेप समझना चाहिए। श्रथवा धर्मास्तिकाय का चलन - सहायक गुण, धर्मास्तिकाय का स्थितिसहायक गुण, आकाश का अवगाहन गुण, काल का वर्त्तनागुण और पुद्गल का पूरण- गलन गुण इस प्रकार पाँच अजीव द्रव्यों का स्वभाव द्रव्यनिक्षेप है । इन पाँचों अजीव द्रव्यों के जो-जो सद्भाव रूप गुण हैं उन्हें भावनिक्षेप कहते हैं ।
इसी प्रकार शेष तत्वों पर भी चार निक्षेप घटित कर लेना चाहिए ।
चार प्रमाण
जिसके द्वारा वस्तु के स्वरूप का सम्यक् प्रकार से निश्चय होता हैवास्तविक ज्ञान होता है, उसे प्रमाण कहते हैं । ज्ञान यद्यपि एक गुण है, किन्तु विषय के भेद से उसके प्रमाण और नय, ऐसे दो भेद होते हैं । जो ज्ञान वस्तु के अनेक धर्मों में से किसी एक धर्म के द्वारा वस्तु का निश्चय करता है वह नय कहलाता है और जो ज्ञान अनेक निश्चय करता है वह प्रमाण कहलाता है । नय एक दृष्टि से वस्तु का निर्णय करता है और प्रमाण अनेक दृष्टियों से नय प्रमाण का अंश है, अतएव न उसे प्रमाण कहा जा सकता है और न अप्रमाण ही ।
धर्मों द्वारा वस्तु का
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विवक्षा के भेद से प्रमाणों की संख्या कई प्रकार से बताई जा सकती है । न्यायशास्त्र में प्रत्यक्ष और परोक्ष के भेद से प्रमाण दो प्रकार का बतलाया गया है । अनुयोगद्वारसूत्र में प्रमाण के चार भेद कहे हैं - ( १ ) प्रत्यक्ष (२) अनुमान (३) श्रागम और (४) उपमा प्रमाण ।
धूंवर, ओस रजघात, चन्द्रग्रहण, सूर्यग्रहण, प्रतिचन्द्र, प्रति, इन्द्रधनुष, उदकमच्छ, अमोघवर्षा, वर्षा की धारा, ग्राम, नगर, पर्वत पातालकलश, नारकावास, भुवन, देवलोक, यावत् ईषत् प्रागभाग पृथ्वी, परमाणु पुद्गल यावत् अनन्त प्रदेशी स्कंध । अनादि परिणामी के भी अनेक भेद हैं-धर्मास्तिकाय यावत् श्रद्धासमय, लोक अलोक, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक, | इस प्रकार पाँच भावों के भेद जानने चाहिए ।