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* धर्म प्राप्ति *
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और शुभ योग की प्रवृत्ति को शुभ प्रास्त्रव मानता है और शुभाशुभ योग की प्रवृत्ति को मिश्र आस्रव मानता है। ऋजुसूत्रनय वर्तमान काल में प्रवृत्त होने वाले शुभाशुभ योग को आस्रव कहता है।
प्रश्न-सिर्फ योग को ही श्रास्रव क्यों कहा है ? मिथ्यात्व, अवत, प्रमाद और कषाय को आस्रव क्यों नहीं कहा गया ?
उत्तर-मिथ्यात्व आदि चारों से योग का ग्रहण नहीं होता, किन्तु योग कहने से मिथ्यात्व आदि का ग्रहण हो जाता है । तात्यय यह है कि मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग, इन पाँचों आस्रवों में से जहाँ पहला-पहला होगा वहाँ आगे-आगे के सब अवश्य पाये जाएँगे। जैसे मिथ्यात्व के होने पर प्रमाद, कषाय योग अवश्य होते हैं । अविरति के होने पर प्रमाद, कषाय और योग अवश्य होता है। प्रमाद की मौजूदगी में कषाय और योग होते ही हैं । कषाय के सद्भाव में योग का सद्भाव रहता है। इस प्रकार विचार करने पर यद्यपि मिथ्यात्व आदि से योग की सत्ता समझी जा सकती है किन्तु योग से मिथ्यात्व आदि पहले के आस्रवों की सत्ता नहीं समझी जा सकती; फिर भी योग प्रधान कारण है और शेष अप्रधान हैं। योग प्रधान कारण इसलिए है कि मिथ्यात्व आदि आस्रव को उत्पन्न करने वाले तीन योग ही हैं। जैसी-जैसी योग की प्रवृत्ति होती है, वैसा ही वैसा आस्रव उत्पन्न होता है । इस कारण यहाँ योग आस्रव का ही ग्रहण किया गया है।
प्रश्न-आत्मा दूर (भिन्न क्षेत्र) वर्ती पुद्गलों को ग्रहण करता है अथवा नहीं?
उत्तर-जिन आकाश-प्रदेशों में आत्मा के प्रदेश मौजूद हैं, उन्हीं आकाशप्रदेशों में स्थित पुद्गलों को आत्मा ग्रहण करता है । दूर के पुद्गलों को ग्रहण नहीं करता।
सूचना-शुभाशुभ योग में पड्गुण हानि-वृद्धि होती है । यहाँ एकान्त का संभव नहीं है, क्यों कि एकान्त शुभ योग अथवा एकान्त अशुभ योग मिलना कठिन है। केवली के ओर छयस्थ जीवों के शुभ योग में कितना अन्तर है, यह दीर्घ दृष्टि से विचार लेना चाहिए। ..