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ॐ धर्म प्राप्ति
[ ४५३ मानता है। समभिरूढ़ नय विकास गुण को आकाशास्तिकाय कहता है। एवंभूत नय आकाशास्तिकाय के द्रव्य, गुण, पर्याय, उत्पाद, व्यय ध्रौव्य
आदि के ज्ञान को, जब कि उसका उपयोग उनमें लगा हुआ हो, आकाशास्तिकाय मानता है।
काल पर सात नय-नैगम नय वाला समय को काल कहता है, क्योंकि एक समय का भी वही गुण है जो समग्र कालद्रव्य का गुण है। संग्रहनय एक समय से लेकर कालचक्र तक के सम्पूर्ण परिमाण को अर्थात् समस्त कालचक्र को काल मानता है। व्यवहार दिवस, रात्रि, पखवाड़ा, मास, वर्ष आदि को काल कहता है । वह अढ़ाई द्वीप से बाहर काल को स्वीकार नहीं करता। ऋजुसूत्रनय वर्तमान समय को ही काल मानता है। अतीत और अनागत (भविष्य काल) को नहीं मानता । शब्दनय जीव और अजीव पर्यायों को पलटाते हुए वर्तने वाले को काल मानता है। समभिरूढ़ जीव और अजीव की स्थिति पूरी करने में जो सन्मुख हो उसी को काल मानता है। एवंभूत नय काल द्रव्य के गुण-पर्याय के ज्ञाता को, जब उसी में उपयोग लगा हो, काल द्रव्य मानता है।
पुद्गलास्तिकाय पर सात नय-नैगमनय पुद्गल के स्कंध के एक गुण की मुख्यता ग्रहण करके वर्ण, गंध, रस, स्पर्श के एक अंश को पुद्गल मानता है। संग्रहनय अनन्त पुद्गलों के स्कंध को पुद्गल मानता है । व्यवहारनय विस्रसा, मिश्रसा और प्रयोगसा, इन तीन प्रकार के पुद्गलों का जो व्यवहार दृष्टिगोचर होता हो उसी को पुद्गलास्तिकाय मानता है। ऋजुसूत्रनय जो पुद्गल वर्तमान काल में पूरण-गलन स्वभाव में वर्तता हो उसको पुद्गलास्तिकाय मानता है। समभिरूदनय पुद्गल की षड्गुण हानिवृद्धि एवं उत्पाद-व्यय-ध्रुवता को पुद्गलास्तिकाय मानता है। एवंभूतनय पुद्गलों के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, गुण, पर्याय आदि के ज्ञाता का उपयोग जब उनमें प्रवृत्त हो रहा हो, उसी समय उसे पुमलास्तिकाय मानता है।
पुण्य तन्त्र र सात नय-नैगमनय पुण्य के फल को पुण्यसन मानता है। जैसे किसी के यहाँ द्विपद, असुष्पाइ, धन, धान्य प्रादि