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® जैन-तत्त्व प्रकाश
उसके फल स्वरूप घोर दुःख पाते हैं । जैसे अफीम लपेटी तलदार को चाटने से पहले भी और पश्चात् भी दुःख होता है, उसी प्रकार अज्ञातावेदनीय कर्म बाँधते समय और भोगते समय-दोनों समय दुःख का अनुभव होता है । (४) जैसे शराबी सुध-बुध भूलकर, बेभान हो जाता है, उसी प्रकार मोहनीय कर्म के उदय से जीव आत्मभान भूल कर विभाग परिणति वाला होकर पुद्गलानन्दी बन जाता है । (५) कारागार में पड़ा हुआ मनुष्य यथेच्छ गमनागमन नहीं कर सकता, उसी प्रकार आयुकर्म के उदय से जीव देह रूपी कारागार में फंसा रहता है । (६) जैसे चित्रकार अपनी इच्छा के अनुसार भाँति-भाँति के चित्र बनाता है, उसी प्रकार नामकर्म के योग से जीव नाना प्रकार के शरीर और नाना रूप धारण करता है । (७) जैसे कुंभार एक ही मिट्टी से अनेक वर्तन बनाता है और उन में से कोई मल-मूत्र त्यागने के काम में आता है और कोई घट आदि पूजा जाता है, उसी प्रकार गोत्र कर्म के उदय से एक ही प्रकार के शरीर के धारक भी कोई प्रतिष्ठा पाते हैं और कोई अप्रतिष्ठित समझे जाते हैं । (८) जैसे राजा की इच्छा अमुक रकम अमुक को देने की होने पर भी भंडारी (कोषाध्यक्ष) जब दे तभी उस रकम की प्राप्ति होती है, उसी प्रकार स्वभाव से ही सब जीव अनन्त सुख के धनी होने पर भी उन्हें अन्तराय कर्म के उदय से इच्छित वस्तु प्राप्त नहीं होती। ___चारों बन्धों पर लड्डु का दृष्टांत-सोंठ, मैंथी आदि वस्तुएँ मिला कर लड्ड बनाया गया। वह लड्डु वात श्रादि विकारों को दूर करता है । यह उसकी प्रकृति (स्वभाव) हुई। वह लड्डु एक महीना या दो महीना तक जैसी की तैसी अवस्था में रहता है, यह उसकी स्थिति (कालमर्यादा) हुई । वह लड्ड कटक, तीखा या मीठा होता है, यह उसका रस (अनुभाग) कहलाया। कोई लड्डू बड़ा होता है, कोई छोटा होता है। अर्थात् किसी में दवाइयों का परिमाण अधिक होता है और किसी में थोड़ा होता है। यह उसके प्रदेश कहलाए। जैसे यहाँ लड़ड में चार बातें बतलाई गई हैं, उसी प्रकार बंधने वाले कर्मों में यह चार बातें होती हैं। इन्हीं को चार प्रकार का बंध कहते हैं।
यहाँ यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि प्रकृति और प्रदेशबन्ध