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® जैन-तत्त्व प्रकाश
स्वरूप के गुणों को वस्तु मानता है और सिर्फ विशेषों को ही स्वीकार करता है । उदाहरणार्थ-जीवत्व-सामान्य को स्वीकार करके संग्रहनय ने एक जीव माना था। व्यवहारनय मानता है कि जो जीव है वह या तो संसारी है या मुक्त हैं। इनमें भी संग्रहनय सब संसारी जीवों को एक मानता है। व्यवहारनय उनमें भी भेद करता है कि जो संसारी जीव है वह या तो उस है या स्थावर है। इस प्रकार विधिपूर्वक भेद करना व्यवहारनय है। व्यवहारनय का कथन है कि-कोयल काली है, तोता हरा है और हंस सफेद है। (जब कि निश्चयनय इन प्रत्येक में पाँचों रंग मानता है । ) यह नय भी तीनों कालों को स्वीकार करता है और चारों निक्षेपों को मानता है।
(४) 'ऋजुसूत्रनय-ऋजु–वर्तमानमेव सूत्रयति विकल्पयति यः स ऋजुसूत्रकः।' यह नय मुख्यतया वर्तमानकाल के पर्याय को ही स्वीकार करता है । तात्पर्य यह है कि जो दृष्टिकोण भूतकाल और वर्तमानकाल की उपेक्षा करके वर्तमान कालीन पदार्थ की पर्याय मात्र को ही वस्तु मानता है वह ऋजुसूत्र नय कहलाता है । इस नय के अभिप्राय से समस्त पदार्थ क्षणविनश्वर हैं, कोई स्थायी रूप से रहने वाले नहीं हैं। यह नय चार निक्षेपों में से केवल भावनिक्षेप को ही स्वीकार करता है । दृष्टान्त-एक सेठ श्रावक सामायिक में बैठे थे। उस समय कोई उन्हें बुलाने आया । सेठ की पुत्रवधू घर पर थी। वह बड़ी चतुर और बुद्धिमती थी। जब आने वाले ने पूछा-क्या सेठजी घर पर हैं ? तो बहू ने उत्तर दिया-सेठजी जूता खरीदने चमार के घर गये हैं। वह आगन्तुक चमार के घर पहुंचा। सेठजी वहाँ नहीं मिले तो लौटकर फिर उसने पूछा-सेठजी चमार की दुकान पर नहीं हैं। क्या लौट आये हैं ? तब बहू ने कहा-पंसारी की दुकान पर सोंठ लेने गये हैं। वह बेचारा पंसारी की दुकान पर पहुँचा। सेठजी वहाँ भी नहीं मिले । तव वह घबरा कर कहने लगा-बहिन ! क्यों चक्कर कटवा रही हो ? ठीक-ठीक बतलाओ न, सेठजी कहाँ है ? इतने में सेठजी की सामायिक पूरी हो गई । सामायिक पार कर सेठजी बाहर निकले और बहू पर नाराज होकर कहने लगे-तुम इतनी चतुर हो, फिर झूठ क्यों बोली १ तब बहू ने विनयपूर्वक कहा-क्या सामायिक में बैठे-बैठे आपका विचार चमार और पंसारी