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ॐ धर्म प्राप्ति
कर्म है, उसे उठा लेना बल है, उठाकर योग्य स्थल पर शरीर के ऊपर धारण करना वीर्य है, उठा कर ले चलना पुरुषकार है और जहाँ ले जाना है वहाँ पहुचा देना पराक्रम है। इन छहों) की प्राप्ति होती है। (११) मधुर स्वर (१२) वल्लभ-कान्त स्वर (१३) प्रिय स्वर और (१४) मनोज्ञ स्वर; इस तरह चौदह प्रकार के फल की प्राप्ति होती है ।
___ अशुभ नामकर्म चार प्रकार से बँधता है:-(१) काय की वक्रता (२) भाषा की वक्रता (३) मन की वक्रता अर्थात् मन में कुछ और, वचन में कुछ और तथा काय से कुछ और करने से तथा (४) विसंवाद करने-कदाग्रह करने से अशुभनामकर्म का बंध होता है ।
अशुभ नाम का फल चौदह प्रकार से भोगा जाता है:-(१) अनिष्ट शब्द (२) अनिष्ट रूप (३) अनिष्ट गंध (४) अनिष्ट रस (५) अनिष्ट स्पर्श (६) अनिष्ट गति-चाल (७) अनिष्ट स्थिनि (E) अनिष्ट लावण्य अर्थात् कुरूपता (8) अपयश-अकीर्ति (१०) अनिष्ट उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार, पराक्रम (११) हीन स्वर (१२) दीन स्वर [१३] अनिष्ट स्वर(१४) अकान्त-स्वर-अप्रिय शब्द ।
नामकर्म की ६३ अथवा १०३ प्रकृतियाँ हैं:-४ गति, ५ जाति, ५ शरीर, ३ शरीरों के अंगोपांग,* ५ बंधन, ५ संघात, ६ संस्थान, ६संहनन, ५ वर्ण, २ गंध, ५ रस, ८ स्पर्श, ४ आनुपूर्वी,+ २ विहायोगति (गंधहस्ती या राजहंस के समान शुभ चाल और ऊँट के समान अशुभ चाल), यह पैंसठ पिण्ड प्रकृतियाँ कहलाती हैं । (६६) परवातनाम-ऐसे शरीर की प्राप्ति होना जिससे दूसरों की घात हो (६७) उच्छ्वासनाम (६८) अगुरुलघु–जिससे शरीर शीशे के पिण्ड के समान अत्यन्त भारी और पाक की रुई के समान एकदम हल्का न हो (६६) आतपनाम (सूर्य के समान तेजस्विता होना), (७०) उद्योतनाम (चन्द्रमा की तरह अनुष्ण प्रकाश वाला शरीर होना), (७१)
* (१) मस्तक २) हाती (३) पेट (४) पीठ (५-६) दो हाथ (७-८) दो पेर, यह पाठ अङ्ग कहलाते हैं और उङ्गली आदि उपांग कहलाते हैं।
+ एक भव से दूसरे भव में नियत स्थान पर ले जाने वाला कर्म: