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ॐ जैन-तत्त्व प्रकाश
तिथंचायु का बंध चार प्रकार से होता है-(१) कपट सहित झूठ बोलने से (२) घोर दगाबाजी करने से (३) झूठ बोलने से और (४) खोटे नाप-तोल रखने से।
मनुष्य का आयु चार कारणों से बँधता है:-(१) स्वभाव से सरलतानिष्कपटता होना (२) स्वभाव से ही विनयशीलता होना (३) जीवदया करना (४) ईर्षा-द्वेष से रहित होना।
देव की आयु भी चार कारणों से बँधती है-(१] सरागसंयम अर्थात संयम तो पालना किन्तु शरीर या शिष्यों पर ममत्व होना (२) श्रावक के व्रतों का पालन करना (३) बालतप अर्थात् ज्ञानहीन तप करना (४) अकाम निर्जरा अर्थात् परवश होकर दुःख सहन करना किन्तु समभाव रखना।
इस प्रकार सोलह कारणों से चार आयु का बंध होता है। उसका फल उस-उस आयु की प्राप्ति होना है। नरकगति और देवगति का आयुष्य जघन्य दस हजार वर्ष और अन्तर्मुहूर्त का तथा उत्कृष्ट पूर्वकोटि का तीसरा भाग अधिक तेतीस सामरोपम का है। तियश्च और मनुष्य का आयुष्य जघन्य अन्तमुहूर्त का और उत्कृष्ट पूर्वकोटि का तीसरा भाग अधिक तीन पल्योपम का है।
(६) नामकर्म-जिस कम के निमित से जीव के शरीर आदि का निर्माण होता है वह नामकर्म कहलाता है। वह दो प्रकार का है-(१) शुभनामकर्म और (२) अशुभनामकर्म । शुभनामकर्म का बंध चार प्रकार से होता है-(१) काय की सरलता से (२) भाषा की सरलता से (३) मन की निर्मलता से और (४) विसंवाद-झगड़े-झंझटों से दूर रह कर प्रवृत्ति करने से।
शुभनामकर्म का फल चौदह प्रकार से भोगा जाता है:-(१) इष्ट शब्द (२) इष्ट रूप (३) इष्ट गंध (४) इष्ट रस (५) इष्ट स्पर्श (६) मनोज्ञ चाल (७) सुखकारी आयुष्य (८) मनोज्ञ लावण्य-सौन्दर्य (8) इष्ट, यशोकीर्ति (१०) इष्ट उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुपकार, पराक्रम (पड़ी हुई किसी चीज़ को लेने के लिए उद्यत होना उत्थान है, उसे लेने लिये जाना