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* सूत्र धर्म *
[ ४२६ है । यह स्वभाव मुख्य रूप से आठ प्रकार के हैं, अतः कर्म भी मुख्य रूप से आठ प्रकार के बतलाये गये हैं। उनका विस्तार इस प्रकार है:
(१) ज्ञानावरणकर्म- - ज्ञान गुण को ढँकने वाला कर्म ज्ञानावरण या ज्ञानावरणीय कहलाता है । यह छह प्रकार से बँधता है - (१) ज्ञान और ज्ञानी की निन्दा करने से (२) ज्ञान का निङ्खव (अपलाप) करने से (३) ज्ञान या ज्ञानी की सातना करने से (४) ज्ञान सीखने में विघ्न डालने से (५) ज्ञान या ज्ञानी पर द्वेषभाव रखने से और (६) ज्ञानी के साथ विसंवाद अर्थात् झगड़ा करने से |
छह प्रकार से बाँधे ज्ञानावरणकर्म का फल दस प्रकार से भोगना पड़ता है: -- (१) मतिज्ञानावरण (निर्मल मतिज्ञान की प्राप्ति न होना) (२) श्रुतज्ञानावरण (श्रुतज्ञान की विशिष्ट प्राप्ति न होना), (३) अवधिज्ञानावरण (वधिज्ञान की प्राप्ति न होना), (४) मनःपर्यायज्ञानावरण (मनःपर्याय ज्ञान की प्राप्ति न होना), (५) केवलज्ञानावरणीय (केवलज्ञान की प्राप्ति न होना), (६) बहिरा होना (७) अंधा होना (८) सूँघने की शक्ति न पाना (६) गूँगा होना (१०) स्पर्श की अनुभूति से शून्य होना अर्थात् स्पर्शनेन्द्रिय की शक्ति का मारा जाना ।
(२) दर्शनावरण कर्म — आत्मा के दर्शनगुण को रोकने वाला कर्म दर्शनावरण कहलाता है । यह कर्म भी ज्ञानावरणकर्म की भाँति छह प्रकार से बँधता है | ज्ञानावरण कर्म के बंध में जहाँ ज्ञान और ज्ञानी का कथन है, वहाँ दर्शनावरण के बंध में दर्शन और दर्शनवान् कहना चाहिए, जैसे दर्शन और दर्शनवान् की निन्दा करना आदि ।
दर्शनावरणकर्म नौ प्रकार से भोगा जाता है : -- (१) चक्षुदर्शनावरणीय (२) अचक्षुदर्शनावरणीय (३) अवधिदर्शनावरणीय (४) केवलदर्शनावरणीय (५) निद्रा (सहज ही उड़ जाने वाली नींद), (६) निद्रानिद्रा ( कठिनाई से भंग होने वाली निद्रा), (७) प्रचला (बैठे-बैठे आने वाली निद्रा), (८) प्रचलाप्रचला ( रास्ते चलते आने वाली निद्रा), (६) स्त्यानगृद्धि (जिस