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जैन-तत्त्व प्रकाश*
सुनने की रुचि रखने वाले लोग बहुत थोड़े ही होते हैं। कोई कहता है'साधु महाराज पधारे हैं, उपदेश दे रहे हैं, चलो सुन आवें ।' तो सामने वाला इसके उत्तर में कहता है—साधु तो निकन्मे हैं। इन्हें और काम ही क्या है ? अपने पीछे तो बाल-बच्चे हैं, घर-द्वार है, धंधा वगैरह अनेक उपाधियाँ लगी हैं । अपने को संसार छोड़कर बाबा नहीं बनना है कि ब्याख्यान सुना करें । इसी समय अगर दूसरा कोई आदमी आकर कहे कि आज एक नया नाटक आया है, चलो देख पावें । तो वही श्रादमी पैसे खर्च करके नाटक देखने को तैयार हो जायगा । माता-पिता की आज्ञा की परवाह किये बिना, बाल-बच्चों को रोता छोड़कर, भूख-प्यास सर्दी गर्मी आदि का खयाल न करके समय से पहले ही वहाँ पहुँच जायगा, महापाप से कमाया हुआ पैसा खर्च करके टिकट खरीदेगा, नीच लोगों के धक्के खाता हुआ अन्दर जायगा, बैठने की जगह न मिली तो खड़ा रहेगा। पेशाब करने की इच्छा होगी तब भी पेशाब रोक रक्खेगा, नींद आयगी तो आखें मसल कर, पानी छिड़क कर जबर्दस्ती प्रयत्न करके जागने की कोशिश करता है। पेशाब रोकने से और समयानुसार नींद नहीं लेने से अनेक रोग उत्पन्न होते हैं। इसके अतिरिक्त नाटक में कृष्ण, रूक्मिणी आदि उत्तम पुरूषों तथा सतियों की ओर कुदृष्टि से देखता है, कुचेष्टाएँ करता है ! अगर कोई मनुष्य प्रेक्षक की माँ-बहन का रूप बना कर नाटकशाला में नाचै तो प्रेक्षक को कितना बुरा लगेगा ?
___ अरे अज्ञानियो ! जरा विचार तो करो कि जिसे तुम परमेश्वर के रूप में, संत के रूप में या सती के रूप में मानते हो उसी के नाटक को नाच-कूद कर बड़ी प्रसन्नता से देखते हो ! कितनी लज्जा की बात है ! अधर्मयुक्त
और पापकारी नाटक-तमाशे में दौड़े-दौड़े जाते हो और धर्मशास्त्र श्रवण करने में शरमाते हो ? सच है, महापापी के भाग्य में उत्तम धर्म कहाँ ?
धर्म श्रवण करने के विषय में कुछ लोग कहते हैं हमसे धर्म क्रिया तो होती नहीं है, फिर सुनने से लाभ ही क्या है ? ऐसे लोगों के लिए यह उत्तर है कि जो सुनेगा वह कभी न कभी उसे अमल में लाने का भी प्रयत्न कारमा । किसी ने सुना कि फलां मकान में भूत है । तो फिर जहाँ तक संभव