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* जैन-तत्व प्रकाश
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पाँच संस्थान यह हैं— (१) वृत्त अर्थात् लड्डू जैसा गोल (२) ज्यत्र अर्थात् सिंघाड़े की तरह तिकोना (३) चतुरस्र अर्थात् चौकी जैसा चौकोर (४) परिमंडल अर्थात् चूड़ी जैसा गोल ओर (५) श्रायत श्रर्थात् लकड़ी के समान लम्बा । इन पाँचों संस्थानों में ५ वर्ण, २ गंध, ५ रस और द स्पर्श, यह बीस-बीस बोल पाये जाते हैं । अतः २०५ = १०० भेद संस्थानआश्रित हुए । इस प्रकार १०० वर्ण के, ४६ गंध के, १०० रस के, १८४ स्पर्श के और १०० संस्थान के मिलकर ५३० भेद रूपी अजीव के होते हैं । रूपी जीव के ३० भेद इनमें मिला देने पर अजीव के कुल ५६० भेद जाते हैं ।
३- पुण्य तत्त्व
जिन कर्मप्रकृतियों का फल सुख रूप परिणमता है उन्हें पुण्यप्रकृति कहते हैं । पुण्यप्रकृतिों के उदय से इष्ट सामग्री और धर्म की सामग्री प्राप्त होती है । अतः 'पुण्य' शब्द की व्युत्पत्ति की गई है - 'पुनातीति पुण्यम् ' अर्थात् परम्परा से जो आत्मा को पवित्र करे वह पुण्य है । जैसे सांसारिक सुख के साधनभूत स्थान, वस्त्र, भोजन आदि पदार्थों को प्राप्त करने में प्रथम कुछ कष्ट पड़ता है, किन्तु बाद में लम्बे समय तक उनसे सुख मिलता है, इसी प्रकार पुण्य उपार्जन करने में प्रथम तो कष्ट सहन करना पड़ता है, किन्तु फिर दीर्घकाल के लिए सुख की प्राप्ति होती है । पुरम्य उपार्जन करना सरल नहीं है। पुद्गलों की ममता त्यागे बिना, गुणज्ञ हुए बिना, आत्मा को वश में करके योगों को शुभ कार्य में लगाये बिना, दूसरों के दुःख को अपना दुःख मान कर उसे दूर करने की भावना और प्रवृत्ति किये बिना पुण्य का उपार्जन नहीं होता ।
पुण्य का बंध नौ प्रकार से होता है - (१) अन्नपुराणे – अन्न का दान करने से (२) पानपुर — पानी का दान करने से (३) लयणपुराणे - पात्र आदि देने से (४) सयणपुराणे - मकान-स्थान देने से (५) वत्थपुणे