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**जैन-तत्त्व प्रकाश *
क्रिया सजीव वेयारणिया कहलाती है । और (२) वस्त्र, आभूषण आदि के द्वारा हर्ष उपजाने वाली तथा विष, शस्त्र आदि से शोक उपजाने वाली कथा करने से जीव वेदारणिया क्रिया लगती है ।
(१६) अनाभोगप्रत्यया क्रिया - उपयोग अर्थात् सावधानी के विना कार्य करने से लगने वाली क्रिया । इसके भी दो भेद हैं- (१) वस्त्र, पात्र यदि साधन बिना देखे, असावधानी से ग्रहण करने और रख देने से लगने वाली क्रिया । ( २ ) वस्त्र, पात्र आदि साधनों का असावधानी से प्रतिलेखन करने, पूँजने से लगने वाली क्रिया । (जिनेन्द्र भगवान् का कथन है कि यतनापूर्वक गमन करते, प्रमार्जन या प्रतिलेखन करते कदाचित् किसी जीव की हिंसा न हो तो भी ऐसा करने वाला हिंसक है । इसके विपरीत यतनापूर्वक गमनागमन करने पर भी कदाचित् अकस्मात् किसी जीव के प्राणों का घात हो जाय तो भी यतनापूर्वक क्रिया करने वाला हिंसक नहीं है | )
(२०) श्रणवखवत्तिय - अपेक्षा बिना काम करना, दोनों (इह - पर) लोक से विरुद्ध काम करना, हिंसा में धर्म बतलाना, महिमा - पूजा के लिए तप संयम आदि का श्राचरण करना अणवखवत्तिया क्रिया कहलाती है । इसका दूसरा अर्थ है— जैसे कोई समझदार पुरुष अपना वस्त्र मलीन नहीं करना चाहता है, किन्तु वह पड़ा पड़ा स्वयं मलीन हो जाता है, इसी प्रकार बिना इच्छा के जो क्रिया लगती है वह श्रणवखवतिया कहलाती है इसके भी दो भेद हैं- (१) अपने शरीर से हलन चलन वगैरह काम करने से लगने वाली क्रिया और (२) दूसरे को हलन चलन आदि काम में लगाने से होने वाली क्रिया ।
(२१) अणापवत्तिया क्रिया- दो वस्तुओं का संयोग मिला देने के लिए दलाली करना । इसके दो भेद हैं - ( १ ) सजीव - स्त्री- पुरुष का तथा गाय-भैंस श्रादि का संयोग मिला देने की दलाली से लगने वाली क्रिया और (२) अजीव वस्त्र, आभूषण आदि की दलाली करने से लगने बाली क्रिया, अतः पापकर्म की दलाली से सदैव बचते रहना चाहिए। इस