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* जैन-तत्स्व प्रकाश *
क्रिया ।* यह भी दो प्रकार की है:-(१) जीवनातीत्यिकी अर्थात् माता, पिता, पुत्र, मित्र, शिष्य, गुरु, भैंस, घोड़ा, साँप, बिच्छु, कुत्ता, खटमल, मच्छर, कीड़ा आदि जीवों पर राग-द्वेष धारण करने से लगने वाली क्रिया
और (२) अजीवप्रातीत्यिकी अर्थात् वस्त्र, आभूषण, मकान, विष, मल-मूत्र श्रादि वस्तुओं पर राग-द्वेष धारण करने से लगने वाली क्रिया। रागी-द्वेषी जीव राग-द्वेष के कारण इस भव में अनेक पापाचरण करते हैं और परभव में अधोगति पाते हैं। धर्मात्मा मनुष्य भी अगर द्वेषभाव से युक्त होता है तो मर कर वाण-व्यन्तर देव होता है। अतः राग-द्वेष का त्याग करके समभाव धारण करना ही उचित है।
(१४) सामन्तोपनियातिकी क्रिया अनेक वस्तुओं का समूह करने (ढेर करने) से लगने वाली क्रिया । यह भी दो प्रकार की है-(१) जीवसामन्तोपनिपातिकी क्रिया अर्थात् दासी,दास घोड़ा, हाथी, बैल, बकरा आदि का संग्रह कर रखना; उन्हें देखने के लिए लोग भावें और संग्रह की प्रशंसा करें तो प्रसन्न होना; तथा इन संग्रह की हुई वस्तुओं का ब्यापार करना । (२) अजीवसामन्तोपनिपातिकी-धातु, घर, महल, वस्त्र आदि वस्तुओं का बहुत काल तक संग्रह रखना, इस माल की प्रशंसा सुनकर दर्षित होना तथा उसे बेचना।
कोई-कोई इस क्रिया का अर्थ ऐसा करते हैं कि दूध, दही, घी, तेल, छाछ, राब, पानी आदि तरल पदार्थों के पात्रों को उघाड़ा रखने से उनमें जीव गिर कर मरते हैं या दुःखी होते हैं। इससे लगने वाली क्रिया सामन्तोपनिपातिका कहलाती है।
(१५) स्वहस्तिकी (साहत्थिया)-परस्पर लड़ाई कराने से लगने वाली क्रिया। इसके भी दो भेद हैं:-(१) जीवस्वहस्तिकी-मेंढा, मुर्गा, सांड, तीतुर,, हाथी, गेंडा आदि जीवों को आपस में लड़ाने से, मनुष्यों की कुश्ती कराने से अथवा चुगली श्रादि करके झगड़ा कराने से लगने वाली क्रिया । (२) भजीवस्वहस्तिकी-अजीव वस्तुओं का आपस में संघर्षण करना, जैसे
के बाहर की वस्तुओं का आश्रय करने से लगने वाली क्रिया पाडुचिया कहलाती है, ऐसा भीमागधी कोष तथा 'पाइयसमहराएको कोष में उल्लेख है ।