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क्रिया | इसके भी दो भेद हैं— क्रोध करने से लगने वाली क्रिया और (२) मान करने से लगने वाली क्रिया ।
* जन-तत्व प्रकाश
यहाँ क्रोध और मान को द्वेष कषाय की प्रकृति में अन्तर्गत किया है । इस प्रकार साम्परायिक क्रिया के २४ भेद हैं ।
(२५) इरियावहिया क्रिया - ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें गुणस्थान वाले उपशान्तकषाय और क्षीणकषाय भगवंतों की नामकर्मोदय श्रादि कारणों से योग की शुभ प्रवृत्ति होती रहती है। उससे सातावेदनीय कर्म के दलिकों का बंध होता है । किन्तु कषाय रहित होने से उन्हें प्रकृतिबंध और प्रदेशबंध ही होता है, स्थिति और अनुभागबंध नहीं होता है, क्योंकि यह दोनों बंध कषाय से होते हैं। इस प्रकार वीतराग भगवंतों को पहले समय में सातावेदनीय के पुद्गल बँधते हैं, दूसरे समय में उनका वेदन होता है। और तीसरे समय में उनकी निर्जरा हो जाती है । इस क्रिया के दो भेद हैं— (१) छद्मस्थ कषाय साधु को चलते-फिरते लगने वाली क्रिया और (२) सयोगकेवली ( तेरहवें गुणस्थानवर्ती) अरिहंत को लगने वाली क्रिया ।
यह पच्चीस क्रियाएँ कर्मबंध का कारण हैं । सम्यग्दृष्टि पुरुष को इनसे बचने का यथासंभव प्रयत्न करना चाहिए ।
नौ तत्वों में से पाँचवें श्रस्रव तत्व के ४२ भेद कहे । यह सब हेय अर्थात् त्यागने योग्य हैं |
६--संवर तत्त्व
पाप-कर्म रूपी पानी से जीव रूपी जहाज भर गया है । कर्म- जल आव रूपी छिद्रों से भरता है । अतएव व्रत- प्रत्याख्यान रूपी डाट लगाकर आस्रव रूपी छिद्रों को रोक देना संवर कहलाता है । तात्पर्य यह है कि श्राव का रुक जाना संवर है । संवर, श्रस्रव का विरोधी है । आस्रव के २० भेदों से विपरीत संबर के २० भेद होते हैं । वे इस प्रकार हैं: