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® जैन-तत्व प्रकाश
में दूसरी पार जाने के लिए जहाज पर सवार होना आवश्यक है और किनारे के निकट पहुँच कर उसका त्याग करना भी आवश्यक है। दोनों किये बिना परले पार पहुँचना सम्भव नहीं है, इसी प्रकार प्राथमिक भूमिका में पुण्य तत्त्व को अहसा करना आवश्यक है और आत्मविकास की चरम सीमा के निकट पहुँच कर त्याग देना भी आवश्यक है। जो पहले से ही पुण्य को त्याज्य समझ कर त्याग देता है, उसकी वही दशा होती है जो किनारे के निकट पहुँचने से पहले ही जहाज का भी त्याग कर देता है। बीच में जहाज त्याग देने वाला समुद्र में डूबता है और पुण्य को त्याग देने वाला संसारसमुद्र से डवता है। ___पुण्य के ऊपर जो बयालीस फल बतलाये हैं, उनसे स्पष्ट है कि पंचे. न्द्रिय जाति, मनुष्य शरीर, वज्रऋषभनाराच संहनन आदि मोक्ष की सामग्री पुण्य से ही प्राप्त होती है। पुण्य के बिना यह सामग्री नहीं मिल सकती।
और इस सामग्री के विना मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती। अतएव विवेक के साथ पुण्य तत्व का स्वरूप समझ कर उसको यथोचित रूप से ग्रहण करना चाहिए।
पुण्य के विषय में एकान्त पक्ष ग्रहण करना उचित नहीं है। पुण्य एकान्ततः त्याग करने योग्य ही है, ऐसा कहा जाय तो उसका फल जो तीर्थङ्कर गोत्र बतलाया है सो वह भी त्याज्य ठहरेगा। इसी प्रकार पुण्य एकान्त श्रादरने योग्य है, ऐसी खींच भी नहीं करनी चाहिए। अगर अन्तिम स्थिति तक पुण्य आदरा जायगा तो उसका फल भी भोगना पड़ेगा और जब तक कर्मों के फल को भोगा जायगा तब तक मोक्ष का सुख प्राप्त नहीं हो सकता। आखिर मोक्ष प्राप्त करने के लिए पुण्य का भी चय करना पड़ता है। अतएव सार यही है कि जब तक मोक्ष सन्निकट नहीं है तब तक पुण्य कर्म आदरने योग्य है। शास्त्र में जगह-जगह पुण्य की महिमा प्रकट की है । ठेठ तेरहवें गुणस्थान तक पुण्य प्रकृति रहती है।
४-पाप तत्त्व
पाप का फस कडक होता है। पाप करना तो सरल है मगर उसका