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ॐ जैन-तत्त्व प्रकाश ®
२७. अस्थिर नाम (शरीर की शिथिल बनावट), २८. अशुभ नाम २६. दुर्भग नाम ३०. दुस्वर नाम ३१.अनादेय नाम ३२. अयशोकीर्तिनाम ३३. नरकगति ३४. नरक की आयु ३५. नरकानुपूर्वी ३६.अनन्तानुबन्धी क्रोध ३७.अनन्तानुवन्धी मान ३८. अनन्तानुबन्धी माया ३६. अनन्तानुबन्धी लोम ४०. अप्रत्याख्यानी क्रोध ४१. अप्रत्याख्यानी मान ४२. अप्रत्याख्यानी माया ४३. अप्रत्याख्यानी लोभ ४४. प्रत्याख्यानी क्रोध ४५. प्रत्याख्यानी मान ४६. प्रत्याख्यानी माया ४७. प्रत्याख्यानी लोभ ४८. संज्वलन क्रोध Be. संज्वलन मान ५०. संज्वलन माया ५१. संज्वलन लोभ* ५२. हास्य ५३. रति ५४. अरति ५५. भय ५६. शोक ५७. दुगुंछा-जुगुप्सा ५८. शीवेद ५६. पुरुषवेद ६०. नपुंसक वेद ६१. तिर्यन्यगति ६२. तिर्यन्चानुपूर्वी ६३. ऐकेन्द्रियपन ६४. द्वीन्द्रियपन ६५. त्रीन्द्रियपन ६६. चौइन्द्रियपन ६७. अशुभ चलने की गति-विहापोगति ६८. उपघात नाम कर्म (अपने शरीर का आप ही घात करना), ६६. अशुभ वर्ण ७०. अशुभ गंध ७१ अशुभ रस ७२. अशुभ स्पर्श ७३. ऋषभनाराचसंहनन ७४. नाराचसंहनन ७५. अर्थनाराचसंहनन ७६. कीलक संहनन ७७. छेवट्ट संहनन ७८. न्यग्रोधपरिमंडल संस्थान ७८. सादि संस्थान ८०. वामन संस्थान ८१. कुब्जक संस्थान ८.इंडसंस्थान। इन चयासी प्रकारों से पाप को भोगना पड़ता है। पाप हेय है, प्रात्मा को कलुषित करने वाला है।
५-आस्रव तत्त्व
बालय की व्याख्या-जैसे नौका में, छिद्र के द्वरा पानी अाखा है, उसी प्रकार आत्मा में, योग और कषाय के द्वारा, कार्मण वर्गणा के पुगलों काथाना प्रावि कहलाता है। जैसे पानी आने से मौका भारी हो जाती है, उसी प्रकार कमी के भागमम स यात्मामारीही जाती है और संसार सागर
*०३६ से १ तक कंघीय कहलाते हैं। इनकै अर्थ के लिए देखो पहना