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® जैन-तत्त्व प्रकाश
त्याग न किया हो या मर्यादा न की हो तो लोक में जितना भी परिग्रह है, उस सब की क्रिया लगती है। इसके भी दो भेद हैं-(१) जीवषारिग्रहकी क्रिया-दास, दासी, पशु, पक्षी, अनाज आदि की ममता से लगने वाली क्रिया और (२) अजीवपारिग्रहिकी क्रिया-वस्त्र, पात्र, आभूषण, थन, मकान आदि की ममता करने से लगने वाली क्रिया।
(८) मायाप्रत्यया-कपट करने से लगने वाली क्रिया । इसके भी दो भेद हैं:-(१) आत्मभाववक्रता-दगाबाजी करना, जगत् में धर्मात्मा कहलाना किन्तु अन्तर में धर्म के प्रति श्रद्धा न होना, व्यापार आदि में कपट करना। (२) परभाववक्रता-झूठे नाप-तोल रखना, अच्छी वस्तु में बुरी वस्तु मिलाना, जैसे घी में तेल, दूध में पानी आदि मिला कर बेचना, दूसरों को ठग-विद्या सिखलाना तथा इन्द्रजाल, मंत्रशास्त्र आदि दूसरों को सिखलाना।
(8) अप्रत्याख्यानप्रत्यया-उपभोग (भोजन, पान आदि एक ही बार भोगी जाने वाली वस्तु) और परिभोग (वस्त्र, पात्र, मकान आदि बारबार भोगी जाने वाली वस्तु) इन दोनों प्रकार की वस्तुओं को चाहे उपभोग किया जाय या न किया जाय, किन्तु जब तक उनका त्याग नहीं किया है तब तक उनकी क्रिया लगती है। इसके भी दो भेद हैं—(१) मनुष्य, पशु, पक्षी आदि सजीव वस्तुओं का प्रत्याख्यान न करने से लगने वाली क्रिया
और (२) सोना, चांदी आदि अजीव वस्तुओं का त्याग न करने से लगने वाली क्रिया।
शंका-जिस वस्तु को हम जानते ही नहीं, जिसके विषय में कान से सुना नहीं, जिसे ग्रहण करने का मन भी नहीं होता, उसके निमित्त से हमें क्रिया किस प्रकार लग सकती है ?
समाधान-अपने मकान में कचरा भरने की किसी की इच्छा नहीं होती, फिर भी जब तक द्वार खुले रहेंगे, घर में कचरा आएगा ही। हाँ, अगर द्वार बन्द कर दिया जाय तो कचरा आने से रुक सकता है। इसी प्रकार जो वस्तु आपने देखी नहीं है, सुनी नहीं है, जिसकी इच्छा भी की