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ॐ धर्म प्राप्ति
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को धनवान्, बलवान्, सुखी, सत्ताधीश या विद्वान् देखकर द्वेष करना, जलना, ईर्षा करना और सोचना कि यह कब वर्वाद या दुखी हो ! तथा लोभी, या चोर झूठा आदमी दुख पाता हो या हानि उठा रहा हो तो प्रसन्न होना और कहना कि बहुत अच्छा हुआ ! यह पापी इसी के योग्य था। दुष्टों पर तो दुःख पड़ना ही चाहिए आदि। प्राद्वेषिकी क्रिया के भी दो भेद हैं:-(१) जीव पर द्वेष भाव धारण करना-मनुष्य, पशु आदि जीवों को दुखी देखकर आनन्द मानना और (२) अजीव पर द्वेषभाव लाना-वस्त्र, आभूषण, मकान आदि अजीव वस्तुओं का विनाश कब होगा, ऐसा सोचना । दोनों प्रकार की क्रियाओं से कर्म बंध होता है।
(४) पारितापनिकी—हाथ की मुट्ठी या लकड़ी आदि से किसी के शरीर केअवय वों का छेदन करने से या ताड़न-तर्जन करके परिताप उपजाने से लगती है। यह दो प्रकार की है-(१) स्वहस्तिकी-अपने हाथ या वचन से किसी दूसरे को या अपने आपको दुःख देना, (२) परहस्तिकी-दूसरे के हाथ से या वचन से दूसरे को या अपने को दुःख पहुँचाना ।
(५) प्राणातिपातिकी-विष या शस्त्र आदि से जीवों की घात करने से प्राणातिपातिकी क्रिया लगती है । इसके भी दो भेद हैं-(१) स्वहस्तिकी
और परहस्तिकी। अपने हाथ से जीवों को मारना, शिकार खेलना आदि स्वहस्तिकी क्रिया है और दूसरे के हाथों जीवघात करना, शिकारी कुत्ता, चीता आदि छोड़कर जीवहिंसा कराना अथवा मारने के लिए उद्यत हुए को 'मार, मार, देखता क्या है 'आदि शब्द कहना, इनाम देना, शाबाशी देना आदि परहस्तिकी प्राणातियाविकी क्रिया कहलाती है।
(६) आरंभिकी-पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस काय के जीवों की हिंसा का जब तक त्याग नहीं किया है, तब तक इनका जितना आरंभ होता है, उस सब पाप की क्रिया लगती है। यह भी दो प्रकार की है-(१) जीवों का प्रारंभ करने से लगने वाली क्रिया और अजीव वस्तु के आरंभ से लगने वाली क्रिया ।
(७) परिग्रहिकी-धन, धान्य, द्विपद, चतुष्पद आदि परिग्रह का