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* स्त्र धर्म *
आस्रव के द्वार-श्रास्रव के २० द्वार हैं- (१) मिथ्यात्व(पुरु, कुदेव तथा कुधर्म पर श्रद्धा करना और पच्चीस प्रकार के मिथ्यात्व का सेवन करना), (२) अव्रत (पाँच इन्द्रियों को तथा मन को वश में न रखना और षटकाय के जीवों की हिंसा से विरत न होना-यह बारह प्रकार का असत है),(३) प्रमाद (मद, विषय, कपाय, निद्रा और विकथा), (४) कषाय-१६ कषाय और ह नोकषाय, (५) योग (मन, वचन, काय की अशुभ प्रवृत्चि), (६) प्राणातिपात, (७) मृषावाद (८) अदचादान (६) मैथुन (१०) परिग्रह (१११५) श्रोत्रेन्द्रिय चक्षुरिन्द्रिय घ्राणेन्द्रिय रसनेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय को अशुभ काम में लगाना), (१६-१८) मन, वचन, काय के योग को अशुभ काम में प्रवृत्त करना (१६) वस्त्र पात्र आदि उपकरण बिना यतना के ग्रहण करना (२०) शुचि कुसग्ग करना (तिनका भी प्रयतना से लेना या रखना)।
पानवद्वार के विशेष भेद ४२ हैं-१ मिथ्यात्व २ अव्रत ३ प्रमाद ४ कषाय ५ योग ६ प्राणातिपात ७ मृषावाद ८ अदत्तादान ८ मैथुन १० परिग्रह ११ क्रोध १२ मान १३ माथा १४ लोभ १५ अशुभ मनोयोम १६ अशुभ वचनयोग १७ अशुभ काययोग, तथा २५ क्रियाएँ, मिलकर कुल ४२ भेद होते हैं।
क्रियाएँ
जिससे कर्म का प्रास्रव होता है, ऐसी प्रवृत्ति को क्रिया कहते हैं। यह क्रिया दो प्रकार की है-जीव के निमित्त से लगने वाली जीवक्रिया
और अजीव के निमित्त से लगने वाली अजीवक्रिया। इन दोनों प्रकार की क्रियाएँ भी दो-दो प्रकार की हैं।
जीवक्रिया के दो भेद-(१) सम्यक्त्वी जीव को लगने वाली क्रिया और (२) मिथ्यत्वी जीव को लगने वाली क्रिया। अजीव क्रिया के दो मेद-(१) साम्परायिक क्रिया और (२) ईर्यापथिक क्रिया । कषाय वाले कीबों को योग की प्राति होने पर जो बिकासमती है बह सापरायिक