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* धर्म प्राप्ति
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नहीं हैं, किन्तु उसका प्रत्याख्यान नहीं किया है— श्रस्रवद्वार बन्द नहीं है, तब तक आत्मा रूपी घर में पाप रूपी कचरा श्राये बिना नहीं रुक सकता । जब प्रत्याख्यान करके आस्रवद्वार बन्द कर दिया जाता है, तब पापक्रिया का आगमन रुक जाता है ।
इसके अतिरिक्त जिस वस्तु का नियमपूर्वक त्याग नहीं किया है, वह कदाचित् सामने आ जाय तो उसका उपभोग किया जा सकता है। जिस वस्तु के विषय में सुना है, पर जो देखी नहीं है, उसे देखने का कदाचित् मन हो सकता है; क्योंकि मन अत्यन्त चपल है और वीतराग की साक्षी से अभी तक उस वस्तु का त्याग नहीं किया है। त्याग न करने का कारण यही है कि अभी उस वस्तु के प्रति पूरी विरक्ति नहीं उत्पन्न हुई है; अब भी उसे भोगने की अव्यक्त इच्छा बनी है। भीतर रही हुई अव्यक्त इच्छा अवसर पाकर व्यक्त (प्रकट) रूप धारण कर लेती है और फिर मनुष्य इन्द्रियों का दास बन जाता है । अतएव जिस वस्तु को भोगने की लेशमात्र भी इच्छा न रही हो, उसका वीतराग की साक्षी से त्याग कर देना ही उचित है । इस प्रकार के त्याग से मन में दृढ़ता उत्पन्न होती है और प्रत्याख्यानप्रत्यया क्रिया से बचाव होता है ।
(१०) मिथ्यादर्शनप्रत्यया — कुदेव, कुगुरु और कुधर्म की श्रद्धा रखने से लगने वाली क्रिया । यह भी दो प्रकार की है - (१) न्यूनाधिक मिथ्यादर्शनप्रत्यया और (२) विपरीत मिथ्यादर्शनप्रत्यया । श्रीजिनेश्वरदेव के कथन से कम या अधिक श्रद्धा करना तथा प्ररूपणा करना न्यूनाधिक मिथ्यादर्शनप्रत्यया क्रिया कहलाती है । जैसे—जीव (आत्मा) अणुमात्र है, तिलमात्र है, तंदुलमात्र है, यह न्यून प्ररूपणा है, क्योंकि जिनेश्वरदेव ने शरीर परिमित आत्मा कही है। तथा जीव को सर्वव्यापक अर्थात् समस्त लोक में आकाश की भाँति व्यापक मानना और प्ररूपणा करना अधिक प्ररूपणा है । जिनेन्द्र भगवान् के कथन से विपरीत श्रद्धा - प्ररूपणा करना विपरीत मिथ्यादर्शनप्रत्यया क्रिया है । जैसे—मिथ्यात्व के उदय से नास्तिक लोग कहते हैं कि आत्मा कोई स्वतन्त्र द्रव्य नहीं है; पाँच भूतों के समुदाय से चेतना उत्पन्न हो जाती है ।